
मध्य प्रदेश : झांसी के लोग ताकते रहे, एयरपोर्ट पहुंच गया मध्य प्रदेश के दतिया
Mon, Feb 24, 2025
यूपी से मजबूत हैं मध्य प्रदेश के नेता?
झांसी/दतिया।
झांसीवासी भले ही अभी हवाई अड्डा की राह देख रहे हों लेकिन पड़ोस के छोटे से जिले दतिया में आधुनिक एयरपोर्ट बन तैयार हो भी गया और उसका 24 फरवरी को वर्चुअल उद्घाटन भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी करेंगे। मप्र के जनप्रतिनिधियों ने साबित कर दिया कि उनमें दम है तभी तो झांसी को पछाड़ कर एयरपोर्ट की सौगात दे दी। अब झांसी के लोग दतिया से उड़ान भरेंगे।
नागर विमानन महा निदेशालय (डीजीसीए) ने दतिया हवाई अड्डे को वीएफआर श्रेणी के तहत पब्लिक एयरोड्रम के रूप में लाइसेंस दे दिया है। इसके साथ ही दतिया हवाई अड्डा मध्य प्रदेश का 8वां सार्वजनिक हवाई अड्डा बन गया है। गौरतलब है कि अंग्रेजों के जमाने से रेलवे का जंक्शन, विशाल सेन्य क्षेत्र, बीएचईएल व तमाम औद्योगिक गतिविधियों का केंद्र, तीन तरफ से मप्र से घिरी ऐतिहासिक नगरी झांसी में दशकों से एयरपोर्ट की जरूरत महसूस की जा रही है।
ऐसा नहीं है कि इसके लिए कवायद नहीं की गई। गाहे-बगाहे या यूं कहें कि चुनाव के समय जनप्रतिनिधियों द्वारा आवाज़ बुलन्द की जाती रही और जारी है, किन्तु उनकी आवाज़ सिर्फ जमीन की तलाश तक ही सीमित रह गई। एयरपोर्ट की जमीन को न जाने कितने क्षेत्र बदले, पर नतीजा रहा ढाक के तीन पात।
उधर, झांसी से चंद किमी दूर मप्र के सीमावर्ती जिला झांसी से हर मायने में "स्माल" जिला दतिया के जनप्रतिनिधि ने अपनी राजनैतिक ताकत के बूते एयरपोर्ट को जमीं पर उतार दिया। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि कारवां गुज़र गया हम गुबार देखते रहे।
2012 में तत्कालीन गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा ने 21 करोड़ की लागत वाली दतिया हवाई पट्टी की आधार शिला रखी थी तब लोगों को लग नहीं रहा था कि कभी दतिया में भी हवाई जहाज उतर पाएंगे। झांसी के लोग तो इसे राजनैतिक स्टंट कहते कटाक्ष करते रहे, किन्तु आज़ की हकीकत ने सबके मुंह पर ताले लगा दिए हैं।
24 फरवरी को शुभारंभ के बाद से ही दतिया हवाई अड्डे को आम यात्रियों के लिए शुरू कर दिया जाएगा। पहली फ्लाइट भोपाल से दतिया, दतिया से खजुराहो होते हुए वापस भोपाल के लिए रवाना होगी। यह एयरपोर्ट 184 एकड़ के क्षेत्र में बनाया गया है। यह एयरपोर्ट साढ़े सात लाख से ज्यादा की आबादी को सेवाएं देगा, जिसमें दतिया के साथ साथ मुरैना, शिवपुरी और एमपी से लगे यूपी के झांसी, ललितपुर व सरहदी क्षेत्रों के रहने वालों को भी इसका लाभ मिलेगा। यहां बड़े शहरों से कनेक्टिविटी बढ़ेगी।
मध्य प्रदेश में पहले 5 प्रमुख एयरपोर्ट को पब्लिक यूज के लिए लाइसेंस प्राप्त थे, जिनमें भोपाल, इंदौर, जबलपुर, खजुराहो, और ग्वालियर शामिल हैं। इसके बाद 9 सितंबर 2024 को रीवा हवाई अड्डे को पब्लिक एरोड्रम के रूप में लाइसेंस मिला हुआ था। हाल ही में, 23 दिसंबर 2024 को सतना हवाई अड्डे को भी पब्लिक एरोड्रम के रूप में लाइसेंस प्राप्त हुआ है। अब प्रदेश का दतिया में आठवां हवाई अड्डा तैयार हो गया है।

मध्य प्रदेश : कॉरपोरेट सरकार में निशाने पर आदिवासी
Sun, Feb 23, 2025
-संजय पराते
भाजपा आदिवासियों के विकास और उनकी भलाई के बारे में लंबे चौड़े-दावे करती है। इन दावों की पड़ताल जल-जंगल-जमीन पर उनके स्वामित्व के अधिकार के संदर्भ में की जानी चाहिए, क्योंकि अधिकांश आदिवासी आज भी वन क्षेत्र में रहते हैं और उनकी आजीविका भी जंगलों से प्राप्त उत्पादों पर ही निर्भर करती है। आदिवासी वनाधिकार कानून में इस बात को स्वीकार किया गया है कि आदिवासी समुदाय सदियों से ऐतिहासिक अन्याय से पीड़ित है और यह कानून उनकी इस पीड़ा को दूर करेगा।
मध्यप्रदेश में भाजपा पिछले 20 सालों से राज कर रही है। इसलिए आदिवासियों की हालत जानने-समझने के लिए इस राज्य का अध्ययन उपयोगी हो सकता है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, मध्यप्रदेश में आदिवासियों की आबादी 1.53 करोड़ थी। आज उनकी संख्या 18 करोड़ से अधिक होने का अनुमान लगाया जा सकता है।
आदिवासियों पर चल रहे मुकदमों को माफ करने की घोषणा भाजपा का प्रिय शगल है, क्योंकि यह एक लोक लुभावन घोषणा होती है। इसी शगल के चलते मई 2024 में भाजपा राज्य सरकार ने घोषणा की थी कि आदिवासियों पर चल रहे 8000 आपराधिक मुकदमों को वापस लिया जाएगा। भाजपा सरकार ने इस पर काफी वाहवाही भी बटोरी थी। लेकिन मुख्य वन संरक्षक, भोपाल ने यह जानकारी दी है कि 9 महीनों में लगभग 4500 मुकदमों को ही वापस लिया गया है।
लेकिन क्या आदिवासियों पर केवल 8000 मामले हीं दर्ज थे? वन विभाग के रिकॉर्ड के अनुसार, वर्ष 2015-24 के बीच दस सालों में वन विभाग ने पूरे प्रदेश में आदिवासियों पर 5,18, 091 मुकदमे दर्ज किए हैं। यदि 2015 से पहले के भी इतने ही मुकदमे मान लिए जाएं, तो आज मध्यप्रदेश में आदिवासी समुदाय अपने खिलाफ लगभग 10 लाख मुकदमे झेल रहा है। इसका अर्थ है कि औसतन 18-20 आदिवासियों में से एक आदिवासी पर वन विभाग ने मुकदमा ठोंक रखा है। इतने बड़े पैमाने पर अन्य किसी भी राज्य में आदिवासी समुदाय मुकदमेबाजी में फंसा नहीं होगा।
भाजपा सरकार ने जिन 4500 मुकदमों को वापस लिया है, उसका विश्लेषण करें, तो आदिवासियों के खिलाफ ये मुकदमे जिन अपराधों के लिए दायर किए गए हैं, उनमें प्रमुख हैं: जंगल की कटाई; खनन; अतिक्रमण; तेंदूपत्ता, शहद, बांस, कुकुरमुत्ते जैसे लघु वनोपजों का संग्रहण; खूंखार की श्रेणी में नहीं आने वाले जंगली जानवरों, जैसे सुअर आदि का और पक्षियों का शिकार; मछली पकड़ना और कृषि और घर निर्माण के लिए और जलाने के लिए सूखी लकड़ी का संग्रहण आदि। ये सभी मुकदमे वनाधिकार कानून को दरकिनार कर भारतीय वन अधिनियम 1927 तथा वन्य प्राणी संरक्षण कानून 1972 के तहत दर्ज किए गए हैं।
जिन वन अपराधों के लिए आदिवासियों पर मुकदमे दायर किए गए हैं, वे सभी वनाधिकार कानून के अंतर्गत अपराध नहीं रह गए हैं, क्योंकि आदिवासियों के साथ सदियों से किए जा रहे ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए वनों पर और वनों के उपयोग और प्रबंधन से संबंधित सभी अधिकार आदिवासी समुदाय को दे दिए गए हैं। इसके साथ ही, वनाधिकार कानून में यह प्रावधान किया गया है कि यदि अन्य किसी भी प्रचलित कानून के प्रावधान इस कानून से टकराते हैं, तो वनाधिकार कानून को सर्वोच्चता दी जाएगी।
इसलिए जिन वन अपराधों पर आदिवासियों के खिलाफ मुकदमे बनाए गए हैं, वे अवैध है और सभी 5.2 लाख मुकदमे वापस लिए जाने की/निरस्त किए जाने की जरूरत है। वे सभी मुकदमे, जो वनाधिकार कानून लागू होने के बाद आदिवासियों पर थोपे गए हैं, उसके लिए प्रशासन के अधिकारी पूरी तरह से दोषी हैं और फर्जी मुकदमे थोपे जाने के अपराध में संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करने की जरूरत है।
किसानों और आदिवासियों के लिए एक बड़ी समस्या आवारा पशुओं और जंगली जानवरों, विशेषकर सुअरों से खेती बाड़ी की रक्षा करना है। मध्यप्रदेश और पूरे देश में ही किसान समुदाय इस समस्या का सामना कर रहा है, लेकिन सरकार और प्रशासन को आदिवासियों के खेतों और खेती को जो रहे नुकसान से कोई लेना-देना नहीं है। हां, इन जंगली पशुओं के हमलों का सामना करते हुए अपनी खेती और जीवन की रक्षा के लिए यदि कोई पशु मारा जाता है, तो वन विभाग का अमला आदिवासियों को सजा देने के लिए जरूर सक्रिय हो जाता है।
लेकिन सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है, जबकि वनाधिकार कानून जल जंगल और जमीन पर आदिवासियों को मालिकाना हक देता है? इसका उत्तर भी बहुत सीधा है: आज केंद्र और राज्यों की भाजपा सरकारें जल जंगल, जमीन, खनिज और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों को नहीं, कॉरपोरेटों को स्वामित्व देना चाहती है, ताकि वे इन संसाधनों का दोहन करके अपनी तिजोरियों को भर सकें। इस लूट का एक हिस्सा भाजपा और संघी गिरोह के पास भी जा रहा है। इसलिए वन भूमि पर काबिज आदिवासियों को पट्टा देकर मालिकाना हक देने के बजाए उन्हें अपने दमन उत्पीड़न का शिकार बना रहे हैं, ताकि उन्हें आसानी से वन भूमि से विस्थापित होने के लिए मजबूर किया जा सके।
यह केवल मध्यप्रदेश की कहानी नहीं है। यह छत्तीसगढ़ की भी कहानी है। यहां अडानी को कोयला खनन के लिए हसदेव का जंगल देने के लिए फर्जी ग्राम सभाएं आयोजित होती हैं, जिस वन भूमि के पट्टे आदिवासियों को दिए भी गए हैं, उन्हें छीना जा रहा है। आरएसएस-भाजपा प्रायोजित सलवा जुडूम अभियान के बारे में तो पूरा देश जानता है, जिसके जरिए आदिवासियों को सैकड़ों गांवों को खाली करने के लिए मजबूर किया गया था और अंततः सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही इस मुहिम पर रोक लगी थी।
अमूमन पूरे देश के आदिवासी आज कॉरपोरेटों के निशाने पर है और इन्हें भाजपा सरकार का पूरा समर्थन-संरक्षण हासिल हैं। सरकारों की इस कॉर्पोरेटपरस्ती के खिलाफ आम जनता के सभी तबकों की लामबंदी सुनिश्चित करनी होगी और आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए एक व्यापक संघर्ष छेड़ना होगा। देश पर कॉर्पोरेट-निजाम थोपने वाली संघ-भाजपा और उसकी सहयोगी ताकतों के खिलाफ जन पक्षधर विकल्प के आधार पर राजनैतिक-सामाजिक ताकतों की कतारबंदी और जुझारू जन संघर्ष ही इसका मुकाबला कर सकती है।
(संजय पराते अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं)

मध्य प्रदेश : बदलने थे गांव, बदल रहे हैं नाम
Sun, Feb 16, 2025
-बादल सरोज
बात 1966 के नवम्बर की है। हिसार जिले के एक गाँव में हुक्का गुडगुडाते हुए एक ताऊ बोले कि पंजाब से अलग हो गए ये बहुत अच्छा हुआ ! उनके नाती ने पूछा कि ऐसा क्या बदल जाएगा? ताऊ बोले कि बेटा, पंजाब में ठण्ड बहुत पड़ती थी, अब नहीं पड़ेगी। ताऊ एक व्यक्ति नहीं प्रवृत्ति हैं; ऐसे सदाशयी और भोले लोगों के कन्धों पर ही हुक्मरानों की पालकी रहती और चलती आयी है। सत्ता में बैठे चतुर सिर्फ ऐसे ताऊओं को मामू बनाने का काम ही नहीं करते, वे इन्हें मामू बनने के लिए तैयार भी करते हैं, उन्हें ऐसा बनाये रखने के लिए अपने सारे घोड़े दौड़ा देते हैं, गदहों और खच्चरों को भी काम पर लगा देते हैं। बाकी काम भले भूल जाएँ मगर राज करने वाले इस काम को कभी नहीं भूलते।
ऐसे ही मामू बनाने की ताऊ की परम्परा पर चलते हुए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने चुटकी बजाके प्रदेश के 65 गाँवों की समस्याओं का समाधान कर दिया है; उन्होंने इनके नाम बदल दिये हैं। इन दिनों वे इसी तरह के काम में लगे हैं। जनवरी में वे शाजापुर गए थे तो मंच पर खड़े खड़े 11 गाँवों के नाम बदल दिए थे। अभी कुछ दिन पहले फरवरी में एक अकेले देवास जिले के 54 गाँवों के नाम बदलने की घोषणा भी मंच से ही कर मारी।
इन गाँवों की सूची किसी पटवारी या तहसीलदार या ग्राम पंचायत ने नहीं बनाई थी। यह सूची उन्हें भाजपा के जिला अध्यक्ष ने थमाई थी, जिस पर उन्होंने आव देखा न ताव उस पर तुरंत अपना अंगूठा लगाया और कलेक्टर को उसकी तामील का हुकुम दे दिया। भले मध्यप्रदेश के गाँव वालों की मुराद कुछ और ही हो, उस पर मुख्यमंत्री का कभी कोई गौर ही न हो मुरादपुर का नाम बदल कर उन्होंने मीरापुर कर दिया और इस पर खुद ही बल्लियों उछलने भी लगे- बाकी ताऊओं के उछलने की उम्मीद भी करने लगे। जरूरत गाँव के हालात बदलने की है-सीएम नाम बदल रहे हैं।
मध्यप्रदेश के गाँव अपने इतिहास में कभी जितने परेशान और पशेमान नहीं रहे जितने हाल के दौर में हैं। यह प्रदेश देश के उन चार पांच प्रदेशों में से एक है जहां किसान आत्महत्या एक आम बात हो गयी है। किसान के बेटे, भांजे, भतीजे मुख्यमंत्री, मंत्री, संत्री बनते रहे हैं मगर उनके बावजूद-सही कहें तो उनकी वजह से-किसान आत्महत्या करते रहे हैं। ज्यादातर मामलों में कर्ज इसका कारण बनता है, जो इसलिए बढ़ता है क्योंकि जिस फसल के लिए उसे लिया गया होता है वह घाटे में चली जाती है।
इन दिनों यह घाटा कभी भी और किसी भी हालत में हो सकता है; फसल बर्बाद हो जाए तब भी, फसल शानदार हो जाए तब भी। प्रदेश की खेती लगातार घाटे का सौदा बनी हुई है; अभी कुछ ही महीने पहले इन्ही मोहन यादव के मालवा सहित प्रदेश के बड़े हिस्से के किसान अपनी सोयाबीन को लागत तक न निकलने वाली कीमत पर बिकते हुए देखकर बिलबिलाये हुए थे। स्वतःस्फूर्त आन्दोलन से प्रदेश झनझना उठा था। किसान राजधानी वाजधानी के चक्कर में पड़ने के बजाय गाँव बंद और गाँव के पास की सड़कें जाम कर रहे थे। यह सिर्फ सोयाबीन उत्पादक किसानों की कहानी नहीं है ; सारे धान पंसेरी के भाव तुल रहे हैं।
ऐसे हर मौके पर मुसक्का लगाये बैठे रहे उनके प्रदेश के मुख्यमंत्री अब उन्हें यह भुलावा दिलाना चाहते हैं कि जैसे गाँवों के नाम बदलने से उनकी सोयाबीन, सरसों, गेंहू और धान की फसल मुनाफे में चली जायेगी। गौपुत्रों की मेहरबानी और गौगुंडों के प्रभाव के चलते प्रदेश के ज्यादातर गाँव आवारा पशुओं के आतंक से बेहाल है, स्मार्ट मीटर के नाम पर आ रही आपदा से चिंतित हैं, बंद होते सरकारी स्कूलों अस्पतालों और महँगी होती निजी शिक्षा और दवाओं से त्रस्त हैं और मुख्यमंत्री हैं कि उनके गाँवों के नाम बदल कर ही मस्त है। ताज्जुब नहीं होगा यदि आने वाले दिनों में इन आत्महत्याओं के लिए भी वे मोक्ष या किसानवीर जैसा कोई शब्द इस्तेमाल करने की घोषणा कर दें।
मोहन यादव उज्जैन के हैं, वही उज्जैन जिसे संस्कृत के नामी साहित्यकार कालिदास के नाम से जाना जाता है। कालिदास के कालिदास बनने की विकासगाथा में एक कालिदास वे भी थे जो जिस टहनी पर बैठे थे उसे ही काट रहे थे। लगता है इन्हें वे ही कालिदास याद है और जिस प्रदेश की अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी है वे उसी की हरी भरी डाली काटकर इंग्लैण्ड, जर्मनी और जापान जाकर दिखाना चाहते हैं और उन्ही के सहारे इन देशों के पूँजी पिशाचों को न्यौता देना चाहते हैं। उनके पूर्ववर्ती शिवराज सिंह ऐसे अनेक ड्रामे कर चुके हैं जिनमे जितना खर्चा हुआ था उतना भी विदेशी देसी निवेश नहीं आया।
भाषा मनुष्य समाज में सम्प्रेषण और संवाद का ही माध्यम नहीं है; भाषा वर्चस्व का, शासक वर्गों के वर्चस्व का भी जरिया होती है। उन्हें गुमराह करने का औजार भी होती है। इतना ही नहीं, जैसा कि कोई 75 साल जॉर्ज ओरवेल ने कहा था “राजनीतिक भाषा झूठ को सत्य और हत्या को सम्मानजनक बनाने का काम करती है।” भाजपा जिस वैचारिक सोच के हिसाब से राजनीति करती है उसमे भाषा के इस तरह के इस्तेमाल की अहम् भूमिका है। वे जोड़ने या संवाद करने के लिए नहीं तोड़ने और खामोश करने के लिए भाषा को वापरते हैं।
गाँवों के नाम बदलने के प्रहसन में इन साहब ने भी यही किया। मौलाना नाम के गाँव का नाम बदलकर विक्रमपुर करते हुए वे जो बोले वह संविधान की शपथ लेकर मुख्यमंत्री बने व्यक्ति की भाषा नहीं है; किसी सभ्य और सुसंस्कृत व्यक्ति की भी भाषा नहीं है। उन्होंने कहा कि “गाँव का नाम मौलाना लिखने में पेन अटकता था, अब विक्रमपुर लिखने में नहीं अटकेगा। इस तरह उन्होंने खुद स्वीकार लिया कि गाँवों को बदले बिना उनके नाम बदले जाने के पीछे किस तरह की विकृत मानसिकता है, किस तरह का विषाक्त सोच है।
यह घटना आने वाले दिनों के मध्यप्रदेश की स्थिति का पूर्वाभास देती है; जाग्रत समाज के लिए कार्यभार तय करती है कि वह इसके निहितार्थ समझे और इस मायावी जाल को छिन्न भिन्न करने के लिए जरूरी जद्दोजहद की तैयारी करे।
(बादल सरोज लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)