
दिल के रखवाले की बात : राजनीति और मानव व्यवहार भौतिकी के नियमों की रोशनी में
Sun, Sep 28, 2025
डॉ. ओम शंकर
मानव समाज की गति और राजनीति की दिशा को समझने के लिए केवल इतिहास, दर्शन या समाजशास्त्र ही पर्याप्त नहीं हैं। कभी-कभी भौतिकी के शाश्वत नियम भी हमें यह बताने लगते हैं कि व्यक्ति, समाज और सत्ता किस प्रकार गति करते हैं, टकराते हैं, बिखरते हैं या एक नई दिशा प्राप्त करते हैं। राजनीति का रंगमंच असल में मानवीय इच्छाओं और शक्तियों की वह प्रयोगशाला है, जहाँ न्यूटन का नियम, आर्किमिडीज़ का सिद्धांत और ऊर्जा संरक्षण का सूत्र नए अर्थों में जीवित हो उठते हैं।
1. जड़त्व और सत्ता का मोह
न्यूटन का पहला नियम कहता है कि कोई वस्तु तब तक अपनी अवस्था में बनी रहती है जब तक कोई बाहरी बल उस पर कार्य न करे। यही नियम राजनीति में भी दिखाई देता है। सत्ता पर बैठा शासक या वर्ग तब तक अपने स्थान से हटना नहीं चाहता जब तक कोई जनांदोलन, विद्रोह या क्रांति उसे हिलाकर न रख दे। यही राजनीतिक जड़त्व है। जनता का बल ही वह बाहरी शक्ति है जो जड़ हो चुकी सत्ता को गतिमान करती है।
2. क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम और संघर्ष की राजनीति
न्यूटन का तीसरा नियम कहता है—“प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है।” राजनीति में हर नीति, हर दमन, हर अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध जन्म लेता है। जिस तरह गेंद दीवार से टकराकर उतनी ही ताक़त से लौटती है, उसी तरह दमनकारी शासन जनता के क्रोध से टकराकर ढह जाता है। गांधी का असहयोग आंदोलन और भगत सिंह का विद्रोह—दोनों इसी नियम के सामाजिक रूप हैं।
3. ऊर्जा संरक्षण और जनशक्ति
भौतिकी कहती है कि ऊर्जा नष्ट नहीं होती, केवल रूप बदलती है। मानव समाज में भी जनता की चेतना और उसकी आकांक्षा कभी समाप्त नहीं होती। यदि उसे दबाया जाता है, तो वह गीतों में, कविताओं में, लोककथाओं में, गुप्त आंदोलनों में रूप बदलकर जीवित रहती है और अवसर मिलते ही विस्फोट की तरह प्रकट हो जाती है। यही इतिहास में क्रांतियों का शाश्वत बीज है।
4. आकर्षण का नियम और करिश्माई नेता
गुरुत्वाकर्षण का नियम हमें बताता है कि प्रत्येक कण दूसरे कण को आकर्षित करता है। राजनीति में करिश्माई नेताओं के व्यक्तित्व में भी ऐसा ही गुरुत्व होता है। गांधी, नेहरू, अंबेडकर या सुभाष—इनके व्यक्तित्व ने लाखों लोगों को अपनी कक्षा में खींच लिया। किंतु जैसे ग्रहों की कक्षा से बाहर जाते ही संतुलन बिगड़ता है, वैसे ही नेता यदि अपनी जनता से दूर हो जाए, तो उसका आकर्षण भी क्षीण हो जाता है।
5. उष्मागतिकी और सत्ता का पतन
ऊष्मागतिकी का दूसरा नियम कहता है कि हर व्यवस्था समय के साथ अव्यवस्था की ओर बढ़ती है। राजनीति में भी यही सत्य है—हर साम्राज्य, हर तानाशाही, हर सत्ता समय के साथ विघटित होती है। रोम से लेकर ब्रिटिश साम्राज्य और सोवियत संघ तक इसका प्रमाण है। व्यवस्था को बचाने के लिए उसे समय-समय पर नवीनीकरण और ऊर्जा-संचार की आवश्यकता होती है, अन्यथा पतन निश्चित है।
6. द्रव और प्रवाहमान समाज
तरल यांत्रिकी हमें बताती है कि पानी अपना रास्ता खुद खोज लेता है। उसे रोका नहीं जा सकता, वह कहीं-न-कहीं से रिसकर निकल ही जाएगा। राजनीति में जनता भी ऐसी ही नदी है। उसे कितना भी रोको, उसकी आकांक्षाएँ कहीं-न-कहीं से मार्ग निकाल लेंगी। लोकतंत्र दरअसल उस बाँध का सुरक्षित रूप है, जो जनता की शक्ति को नियंत्रित करते हुए उसे उपयोगी दिशा देता है।
मानव और समाज भी अंततः प्रकृति का ही हिस्सा हैं। इसलिए यह स्वाभाविक है कि भौतिकी के नियम उनके व्यवहार और राजनीति में भी परिलक्षित हों। सत्ता का जड़त्व, अन्याय पर प्रतिक्रिया, जनता की अमर ऊर्जा, नेताओं का आकर्षण, सत्ता का विघटन और जनता का प्रवाह—ये सब हमें बताते हैं कि राजनीति केवल विचारों का खेल नहीं है, बल्कि यह प्रकृति के नियमों की प्रतिछाया भी है।
इसलिए राजनीति को समझने के लिए इतिहास और दर्शन के साथ-साथ हमें प्रकृति और भौतिकी की भाषा भी सीखनी होगी। तभी हम यह जान पाएँगे कि समाज की गति किस दिशा में है और मानवता का भविष्य किस नए नियम से आकार लेगा।

नब्ज पर हाथ : भारत में बदल गया है चुनाव लड़ने का तरीका
Sat, Sep 27, 2025
अजीत द्विवेदी
भारत के चुनावों में गुणात्मक परिवर्तन आया है। चुनाव लड़ने का तरीका बदल गया है। चुनाव लड़ने वालों की नई पीढ़ी आ गई है और साथ साथ चुनाव के मुद्दे भी तेजी से बदल रहे हैं। हालांकि जाति और धर्म अपनी जगह अपनी भूमिका निभा रहे हैं। परंतु इनसे अलग बहुत सारी चीजें बदल गई हैं। जैसे चुनाव अब सिर्फ बिजली, सड़क और पानी यानी बीएसपी का नहीं रह गया है। कई दशकों तक विकास का मतलब बिजली, सड़क, पानी को माना गया और पार्टियां, सरकारें इसी नाम पर चुनाव लड़ती थीं। अब भी गाहेबगाहे यह मुद्दा उठता है।
जैसे एक जमाने में बिहार के एक नेता एक मशहूर अभिनेत्री के गालों की तरह बिहार की सड़क बनाने की बात करते थे वैसे ही केंद्र सरकार के एक मंत्री अमेरिका की तरह भारत की सड़कें बनाने का वादा करते रहते हैं। लेकिन सड़क अब चुनाव का अहम मुद्दा नहीं है। बिजली और हर घर नल से जल पहुंचाने का मुद्दा भी चुनावी विमर्श के केंद्र में नहीं है। अब ऐसा लग रहा है कि इन सबका नहीं होना मतदान व्यवहार को प्रभावित कर सकता है लेकिन इनकी उपलब्धता सुनिश्चित करने से वोट मिलने की संभावना नहीं बढ़ती है।
बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार जरूर अब भी चुनाव में मुद्दा होते हैं क्योंकि ज्यादा समय नहीं बीता है, जब 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर चुनाव लड़ रहे थे और इन्हीं मुद्दों को केंद्र में रख कर उन्होंने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को कठघरे में खड़ा किया। सो, ये मुद्दे हैं। हालांकि सिर्फ इन मुद्दों के आधार पर कोई सरकार चुनाव हार जाए, इसकी मिसाल भी धीरे धीरे कम होती जा रही है। ये मुद्दे होते भी हैं तो चुनाव के समय सुनाई देते हैं। पहले विपक्षी पार्टियां पांच साल तक इन मुद्दों पर जमीनी संघर्ष करती थीं। पहले कीमतों में मामूली बढ़ोतरी पर आंदोलन होते थे। लेकिन अब महंगाई या बेरोजगारी के खिलाफ आंदोलन या किसी ऐतिहासिक मैदान में रैली नहीं देखने को मिलती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ 2011 में आखिरी बार आंदोलन हुआ था उसके बाद ऐसा लग रहा है कि यह मुद्दा समाप्त हो गया है। ऐसे ही रोजगार के नाम पर भी अब राजनीतिक दलों के आंदोलन नहीं होते हैं।
युवा जरूर नौकरियों और प्रतियोगिता परीक्षाओं में गड़बड़ी के खिलाफ आंदोलन करते हैं लेकिन हकीकत यह है कि रोजगार के लिए आंदोलन करने वाले और लाठी खाने वाले युवा भी बेरोजगारी के मुद्दे पर वोट नहीं करते हैं। वे आंदोलन से लौटने के बाद बेरोजगार युवा वाली अस्मिता कंधे से उतार कर खूंटी पर टांग देते हैं। उनका मतदान व्यवहार अपनी मुश्किलों या तकलीफों से निर्धारित नहीं होता है, बल्कि मीडिया और सोशल मीडिया में बनाए जाने वाले नैरेटिव से तय होता है। वे रोजमर्रा की छोटी छोटी जरुरतों के लिए लड़ते हैं लेकिन मतदान बड़ी बड़ी बातों पर करते हैं। इसका श्रेय मोटे तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है। वे बार बार दावा करते भी हैं कि वे कभी छोटा नहीं सोचते हैं।
इसलिए उन्होंने देश के लोगों को भी बड़ा सोचना सीखा दिया है। अब देश के लोग सोशल मीडिया से ज्ञान हासिल करके विदेश मामलों के विशेषज्ञ बन जाते हैं और भारत की विदेश नीति के आधार पर वोट देते हैं। उन्हें बताया जाता है कि भारत की विदेश नीति कमाल की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश में बड़ी इज्जत है और अमित शाह ने तो दावा किया है कि दुनिया का कोई भी बड़ा फैसला मोदीजी से पूछे बगैर नहीं होता है। पिछले 11 साल से लोग इस नैरेटिव से प्रभावित थे। हालांकि अब थोड़ा कंफ्यूजन लोगों में हुआ है कि अमेरिका ने भारत पर जो 50 फीसदी टैरिफ लगाया है या एच 1बी वीजा की फीस बढ़ाई है क्या वह भी मोदीजी से पूछ कर किया है?
बहुत पहले नोम चोमस्की ने ‘द मैन्यूफैक्चरिंग कन्सेंट’ नाम से किताब लिखी थी ऐसा लग रहा है कि वह प्रक्रिया भारत की राजनीति में रिपीट हो रही है। मास मीडिया का इस्तेमाल करके कन्सेंट का निर्माण किया जा रहा है। इस तरह से मास मीडिया का इस्तेमाल हो रहा है कि लोग अपने जरूरी मुद्दे भूल कर बनाए गए मुद्दों के आधार पर राजनीतिक विचार बना रहे हैं और चुनाव में उसी हिसाब से वोट कर रहे हैं। मास मीडिया के जरिए ही विदेश नीति और दुनिया में मोदी की महानता का मिथक गढ़ा गया था। ऑपरेशन सिंदूर, सीजफायर और अमेरिका के साथ संबंधों के डिजास्टर के बावजूद यह मिथक टूटा नहीं है, बल्कि इसे अब दूसरे रूप में स्थापित किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि भारत बहुत तेजी से विश्वगुरू बनने की ओर बढ़ रहा है इसलिए अमेरिका और विश्व शक्तियों की आंखों में खटक रहा है।
बहरहाल, यह सिर्फ विदेश नीति का मामला नहीं है, बल्कि अर्थ नीति और सामरिक नीति भी चुनावी विमर्श का मुद्दा है। पहले कभी नहीं कहा गया होगा कि सरकार ने सेना को खुली छूट दे रखी है। सेना को हमेशा खुली छूट रही है लेकिन अब इस बात का प्रचार किया जाता है। कहा जाता है कि सरकार ने सेना को कहा है कि गोली का जवाब गोले से दो और गोली गिनने की जरुरत नहीं है। इस तरह के जुमले चुनावी नैरेटिव बनाने में इस्तेमाल किए जाते हैं। जटिल से जटिल आर्थिक मुद्दे भी अब मास मीडिया का इस्तेमाल करके लोगों को समझाए जाते हैं और लोग उनसे प्रभावित होते हैं।
ताजा मिसाल जीएसटी की दरों में बदलाव का है। जीएसटी 2.0 का ऐसा माहौल बनाया गया है, जैसे पहले आठ साल तक कांग्रेस की सरकार लोगों का खून चूसती रही हो और अब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने लोगों को उससे मुक्ति दिलाई है। पहले लोगों से इस बात पर ताली बजवाई गई कि देखो हर महीने कितने लाख करोड़ रुपए की जीएसटी वसूली जा रही है और अब इस बात पर ताली बजवाई जा रही है कि जीएसटी में कितनी कटौती कर दी गई।
सो, यह पिछले कुछ वर्षों में आए राजनीतिक बदलाव का संकेत है कि अब रोजमर्रा के जरूरी मुद्दों के बजाय मास मीडिया के जरिए सेट किए गए नैरेटिव्स किस तरह से चुनाव को प्रभावित करते हैं। कैसे विदेश नीति, आर्थिक नीति, सामरिक नीति जैसे जटिल और आम आदमी की पहुंच से दूर रहे मुद्दे अब चुनाव को प्रभावित कर रहे हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकार आम लोगों के सारे जरूरी मुद्दे नहीं सुलझा सकती है लेकिन उनको विनिर्मित नैरेटिव्स में जरूर उलझा सकती है।
(लेखक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक नया इंडिया के संपादक समाचार हैं।)

जीएसटी सुधार से स्वदेशी तक : मोदी जी का सब पाखंड ही पाखंड
Sat, Sep 27, 2025
राजेंद्र शर्मा
नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा तथा संघ परिवार ने एक बार फिर यह साबित किया है कि वे हिटलर के प्रचारमंत्री गोयबल्स के इस सिद्घांत के पक्के अनुयाई हैं कि सौ बार झूठ बोलो और बड़ा झूठ बोलो, तो लोगों से कुछ भी सच मनवाया जा सकता है। इस बार यह जीएसटी में कथित ''सुधार'' या जीएसटी 2.0 के नाम पर किया जा रहा है। खुद प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्र के नाम एक विशेष संबोधन करने के लिए आए, ताकि लोगों से यह मनवा सकें कि लगभग आठ साल जीएसटी के नाम पर, असमानतापूर्ण तरीके से आम लोगों के अंधाधुंध लूटे जाने के बाद, इस लूट का मामूली तरीके से कम किया जाना, आंशिक रूप से गलती का सुधार नहीं है, बल्कि कोई बहुत बड़ी सौगात है, जो मोदी सरकार लोगों को दे रही है, कोई कृपा है, जो यह सरकार लोगों पर कर रही है। गोयबल्स की शिक्षा चूंकि बड़ा झूठ बोलने की थी, इसे जनता के लिए एक ''बचत उत्सव'' ही बताया जा रहा है, जिसमें प्रधानमंत्री के दावे के अनुसार ''सब का मुंह मीठा'' होने जा रहा है। और मोदी राज में चूंकि हरेक सरकारी निर्णय को हिंदुत्ववादी रंग में रंगा जाना ही नया नियम बना दिया गया है, इस कथित ''मिठाई'' को भी हिंदू त्योहारों के सीजन के साथ जोड़ दिया गया है, जिसके बांटे जाने की शुरूआत नवरात्रि से करने का विशेष ध्यान रखा गया है।
बेशक, बहुत से लोगों के मन में इस पर कई सवाल हैं कि प्रधानमंत्री को कथित ''बचत उत्सव'' की घोषणा करने के लिए खुद सामने आने और राष्ट्र के नाम संबोधन का सहारा लेने की क्या जरूरत थी? ये सवाल इसके बावजूद पूछे जा रहे हैं कि यह तो सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी, अपनी सरकार की मामूली से मामूली राहत का श्रेय, सीधे खुद ही लेना बहुत जरूरी समझते हैं। जो प्रधानमंत्री, नयी ट्रेनों को झंडी दिखाकर रवाना करने तक की लाइम लाइट किसी के साथ साझा नहीं करता हो, वह कथित रूप से 2 लाख करोड़ रु. सालाना से ज्यादा की कर राहत का श्रेय बटोरने के लिए राष्ट्र को संबोधित करने में संकोच कर रहा होता, तब ही हैरानी की बात होती। लेकिन, इस मामले में तो श्रेय का दावा नहीं करने या श्रेय किसी के साथ साझा करने का भी कोई सवाल नहीं था। ठीक सवा महीना पहले, लाल किले से अपने स्वतंत्रता दिवस संबोधन में प्रधानमंत्री प्रजा को यह सौगात मिलने और नवरात्रि से ही मिलने का बाकायदा और पर्याप्त विस्तार से एलान कर चुके थे, जिसे उसके बाद सूत्रों से आयी जानकारियों के जरिए प्रस्तावित ''जीएसटी सुधार'' के ब्यौरों के साथ बात आगे भी बढ़ाया जा चुका था।
बहरहाल, जीएसटी में निर्णय की जो औपचारिक व्यवस्था है, जिसमें जीएसटी परिषद के माध्यम से राज्यों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल करने की खाना-पूर्ति ही की जाती है और उसके हिसाब से प्रधानमंत्री को ऐसी घोषणा करने कोई अधिकार ही नहीं था, जब तक जीएसटी परिषद विचार के बाद ऐसे निर्णय पर नहीं पहुंचती। बहरहाल, जीएसटी की व्यवस्था में राज्यों को बराबरी का भागीदारी बनाने के पाखंड का चोगा उतारते हुए, न सिर्फ प्रधानमंत्री द्वारा इकतरफा तरीके से इस साझा कर में इकतरफा बदलाव की घोषणा कर दी गयी, उसके बाद गुजरे दो-तीन हफ्तों में सीधे केंद्र सरकार के निर्देश पर, संबंधित बदलावों पर कथित रूप से विचार करने की खाना-पूर्ति कर के, अनुमोदन की मोहर भी लगा दी गयी। और यह सब कथित रूप से सर्वसम्मति से हुआ क्योंकि 2017 में थोपी गयी जीएसटी की अंधाधुंध लूट में जो भी थोड़ी-बहुत कमी की जा रही थी, उसका विरोध तो कोई राजनीतिक पार्टी कर भी कैसे सकती थी।
फिर भी 15 अगस्त की मूल घोषणा और 22 सितंबर से जीएसटी कर राहतों का लागू होना शुरू होने के बीच के करीब सवा महीने में ही, प्रधानमंत्री को दोबारा राष्ट्र को यह याद दिलाने की जरूरत पड़ गयी कि यह सौगात उन्हीं ने दी है। यह जितना अपने तीसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी की राजनीतिक, जन-समर्थन के पहलू से असुरक्षा को दिखाता है, उतना ही गोयबल्स की सीख पर उनकी बढ़ती निर्भरता को दिखाता है। यह अकारण ही नहीं है कि एक प्रकार से समूचे उद्योग जगत से इस ''जीएसटी सुधार'' के लिए विज्ञापनों की भाषा में ''थैंक यू मोदी जी'' का जयगान कराने के बाद, अब भाजपा के तमाम सांसदों समेत, समूची भाजपा और जहां तक हो सके एनडीए को भी, पूरे हफ्ते भर के जीएसटी-प्रचार अभियान का टास्क सौंप दिया गया है। एक प्रकार से इसी प्रचार अभियान की शुरूआत खुद प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संबोधन से हुई है।
लेकिन, जीएसटी रियायतों को प्रचार के जरिए फुलाकर, उनके वास्तविक आकार से कई गुना बड़ा करने की ये कोशिशें, खासतौर पर बाजार की पदयात्राओं के जरिए, जीएसटी की सबसे घातक मार झेलने वाले लघु तथा सूक्ष्म उद्योगों या एमएसएमई के घावों को कितना भर पाएंगी, कहना मुश्किल है। यह एक जानी-मानी सचाई है कि 2017 में बहुत ही तड़क-भड़क के साथ और वास्तव में 15 अगस्त 1947 के मध्य-रात्रि के स्वतंत्रता की घोषणा करने वाले संसद के विशेष सत्र की भोंडी नकल पर, ''एक देश, एक टैक्स'' के नारे के साथ, मध्य रात्रि के संसद सत्र से घोषित जीएसटी व्यवस्था की, सबसे विध्वंसक मार एमएसएमई क्षेत्र पर ही पड़ी है, जो कृषि के बाद हमारे देश में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देने वाला क्षेत्र है। इस विध्वंस का इस दौर में बेरोजगारी को अभूतपूर्व ऊंचाइयों पर पहुंचाने में सबसे बड़ा योगदान रहा है।
इशारों में सरकार की ओर किए जा रहे प्रचार के विपरीत, कथित जीएसटी सुधार, एसएसएमई के कई उत्पादों की कीमतों में कुछ कमी तो जरूर कर सकते हैं, लेकिन जीएसटी द्वारा पैदा किए गए संकट से इस क्षेत्र को उबार नहीं सकते हैं। वास्तव में यह बाल काटकर मुर्दे के हल्का हो जाने की उम्मीद करने का ही मामला है। लेकिन, एमएमएमई पर घातक प्रहार, उसके लिए जीएसटी की प्रभावी दरें ज्यादा रही होने भर का मामला नहीं है। यह एक कर व्यवस्था के रूप में जीएसटी के अपनी डिजाइन में ही एमएसएमई विरोधी होने का मामला है। सभी जानते हैं और जीएसटी को यह कहकर बराबर प्रचारित भी किया जाता रहा है कि यह अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र को, औपचारिक क्षेत्र बनाने का उद्यम है। लेकिन, भारतीय अर्थव्यवस्था के दुर्भाग्य से अनौपचारिक क्षेत्र को, जो हमारी अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा हिस्सा है, जबर्दस्ती औपचारिक अर्थव्यवस्था में धकियाने की यह कोशिश, मर्ज के साथ मरीज को भी मारने वाली कोशिश साबित हुई है। जीएसटी की दरों में मामूली कमी से यह संकट हल होने वाला नहीं है।
मोदी राज के सारे प्रचार हंगामे के बावजूद, यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है कि जीएसटी दरों में की गयी कमी, एक मामूली कटौती से किसी भी तरह ज्यादा नहीं है। याद रहे कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में भी, छ: महीने पहले बजट में घोषित आयकर दरों में कटौतियों को जोड़कर भी, कुल 2.5 लाख करोड़ रु. लोगों के पास बचने की घोषणा की है। याद रहे कि 2024-25 में कुल जीएसटी राजस्व 22.08 लाख करोड़ रहा था यानी आयकर रियायत को भी जोड़कर, यह रियायत कुल जीएसटी राजस्व के 10वें हिस्से के बराबर ही रहने जा रही है। याद रहे कि यह रियायत भी, प्रधानमंत्री के दावे के विपरीत सिर्फ मेहनतशों, गरीबों, मध्यग वर्ग और तथाकथित नव-मध्यम वर्ग तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि संपन्नतर वर्ग के हिस्से में भी जाएगी, जिसका इस अतिरिक्त बचत से उपभोग शायद ही बढ़ेगा और उसी अनुपात में इस बचत के खर्च किए जाने से अर्थव्यवस्था में पैदा होने वाली अतिरिक्त मांग, घटकर पैदा होगी।
इसलिए, इतनी सी रियायत के सहारे अगर मोदी सरकार अर्थव्यवस्था में नये प्राण फूंकने के दावे कर रही है, तो इसे उसकी हवा-हवाई दावों का सहारा लेने की प्रवृत्ति का ही एक और उदाहरण समझा जाना चाहिए। सचाई यह है कि ट्रंप के टैरिफ प्रहार के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था लिए जितनी समस्या खड़ी कर दी गयी है और एच1बी वीसा की फीस मेें बेहिसाब बढ़ोतरी समेत नये-नये कदमों से ट्रंप प्रशासन जिस तरह इन समस्याओं को बढ़ाने में ही लगा हुआ है, ये रियायतें तो उसके धक्के की काट भी शायद ही कर पाएंगी। दूसरी ओर, कथित जीएसटी-सुधार के प्रचार में मोदी राज अपनी जितनी ताकत लगा रहा है, उसमें इसका इशारा भी छुपा हुआ है कि धनी तबकों पर कर बढ़ाकर, उसके बल पर मेहनतकशों के हाथों में क्रय शक्ति तथा सार्वजनिक निवेश में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करने के जरिए, अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए कोई वास्तविक धक्का देने के किसी प्रयास की तो, मोदी सरकार से उम्मीद ही नहीं की जा सकती है।
इन हालात मेें और खासतौर पर ट्रंप के टैरिफ प्रहार के सामने, अपने शासन के ग्यारहवें साल में नरेंद्र मोदी ने जो अचानक ''स्वदेशी'' का मंत्रजाप शुरू कर दिया है, उसे भी कम से कम ठोकर खाकर रास्ता सुधारने के रूप में गंभीरता से नहीं लिया जा सकता है। इसके विपरीत, यह ''स्वदेशी'' का मंत्र जाप, वर्तमान संकट से ध्यान बंटाने का ही स्वांग ज्यादा लगता है, जिसमें नरेंद्र मोदी सिद्धहस्त हैं। पिछले तीन-चार साल का ही अनुभव हमारे इस संशय की पुष्टि कर देता है। पाठकों को याद होगा कि करोना संकट के बीच, जब चुनौतियां बढ़ती नजर आ रही थीं, प्रधानमंत्री मोदी ने अचानक आत्मनिर्भरता का जाप करना शुरु कर दिया था, बल्कि इसके लिए 20 लाख करोड़ रु. के निवेश का भी एलान कर दिया था। लेकिन, कोरोना की पहली लहर के उतार के साथ ही आत्मनिर्भरता का जाप भी भुला दिया गया। कारोना के बाद के इन तमाम वर्षों में बीमा क्षेत्र के दरवाजे सौ फीसदी विदेशी निवेश के लिए तथा खनन क्षेत्र के दरवाजे विदेशी कंपनियों के लिए खोलने से लेकर, रक्षा क्षेत्र में खासतौर पर अमरीका से बड़ी खरीददारियां करने तक के जो भी कदम उठाए गए हैं, आत्मनिर्भरता और स्वदेशी से उल्टी दिशा में ही जाने वाले कदम है। और तो और, वर्तमान संकट के बीच भी, मुश्किल से दो हफ्ते पहले प्रधानमंत्री इसका एलान कर रहे थे कि उन्हें इससे मतलब नहीं है कि पूंजी किस की है, पूंजी कैसी है, किस रंग की है, पसीना मेरे देशवासियों का लगना चाहिए! यही अगर स्वदेशी है, तो स्वदेशी की परिभाषा बदल देनी चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं।)