
: एमपी में सरकारी स्तर पर इस तरह होता है पत्रकारों का बधियाकरण!
Wed, Nov 6, 2024
मध्य प्रदेश में इन दिनों पत्रकारों की एक सूची जबरदस्त चर्चा में
-अनिल जैन
मध्य प्रदेश में इन दिनों पत्रकारों की एक सूची खूब चर्चा में है। इस सूची में सूबे के विभिन्न शहरों के करीब 150 पत्रकारों के नाम हैं। बताया जा रहा है कि यह सूची उन पत्रकारों की है, जिन्हें उनकी हैसियत के मुताबिक राज्य सरकार के परिवहन विभाग से हर महीने तीन हजार से लेकर एक लाख रुपये तक बतौर ‘बख्शीश’ मिलते हैं।सूची में प्रदेश के सभी बड़े-छोटे अखबारों, स्थानीय और राष्ट्रीय कहे जाने वाले टीवी चैनलों से जुड़े वरिष्ठ, गरिष्ठ और कनिष्ठ पत्रकारों और कुछ छोटे अखबार मालिकों के नाम हैं।यह भी बताया जाता है कि पत्रकारों की यह ‘प्रावीण्य सूची (मेरिट लिस्ट)’ मध्य प्रदेश सरकार के जनसंपर्क विभाग द्वारा प्रस्तावित और भाजपा के प्रादेशिक मुख्यालय द्वारा अनुमोदित है।जानकारों के मुताबिक इस सूची में शामिल पत्रकारों जनसंपर्क विभाग की ओर से को यह स्पष्ट हिदायत है कि उन्हें प्रदेश में सरकार और पार्टी के मुखिया के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करनी है, बाकी किसी का भी ‘बैंड बजाने’ के लिए वे स्वतंत्र हैं।बख्शीश पाने वाले पत्रकार भी इस हिदायत का अनुशासित तरीके से पालन करते हैं। बहरहाल इस सूची के सार्वजनिक होने के बाद कुछ पत्रकार मजाक में इसे मध्य प्रदेश सरकार की ‘लाड़ला पत्रकार योजना के लाभार्थियों की सूची’ कह रहे हैं।बताया जाता है कि यह सूची जनसंपर्क विभाग की ओर से भाजपा मुख्यालय को भेज कर उससे सालाना अपडेट मांगा गया था। भाजपा मुख्यालय सूची को अपडेट कर पाता, उससे पहले ही किसी दिलजले ने इसे ‘लीक’ कर दिया। कुछ गंभीर पत्रकारों का मानना है कि चूंकि मध्य प्रदेश सरकार का खजाना खाली है।विभिन्न विभागों की आर्थिक हालत अब पहले जैसी नहीं है। सरकार को हर दूसरे-तीसरे महीने कर्ज लेकर अपना काम चलाना पड़ रहा है, इसलिए यह सूची सरकार की ओर से ही जान-बूझ कर सार्वजनिक कराई गई है ताकि पत्रकार डर जाएं और पैसे की मांग न करें।इस सूची को सार्वजनिक हुए एक हफ्ता हो गया है लेकिन अभी तक इस पर परिवहन विभाग, जनसंपर्क विभाग, सत्ताधारी पार्टी और मीडिया संस्थानों के मालिकों की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। यानी किसी ने भी न तो इस सूची की पुष्टि की है और न ही सूची को फर्जी बताया है।हां, जानकार सूत्रों के मुताबिक यह जरूर हुआ है कि जिन पत्रकारों और छोटे अखबार मालिकों के नाम इस सूची में नहीं हैं, उन्होंने इसमें अपना नाम जुड़वाने के लिए भाजपा के प्रभावी नेताओं से संपर्क किया है। उनकी दलील है कि अखबार में कोई भी खबर छापने या रोकने का फैसला तो हम करते हैं, इसलिए पैसे हमें भी मिलना चाहिए।इस सूची में जिन पत्रकारों के नाम शामिल हैं, उनमें से भी ज्यादातर ने चुप्पी साध रखी है। अलबत्ता उनमें से चार पत्रकारों ने जरूर भोपाल पुलिस की अपराध शाखा में अज्ञात व्यक्ति के खिलाफ एक रिपोर्ट दर्ज कराई है, जिसमें इस वायरल सूची को कूटरचित और फर्जी बताते हुए मामले की जांच कर दोषी व्यक्ति के खिलाफ वैधानिक कार्रवाई करने की मांग की गई है।लेकिन सवाल है कि अज्ञात व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने का क्या मतलब और इससे क्या हासिल होने वाला है? मध्य प्रदेश के ही कुछ पत्रकार भी एफआईआर को हास्यास्पद मानते हैं।बहरहाल परिवहन विभाग से कथित तौर मासिक बख्शीश पाने वाले पत्रकारों सूची जारी होना जरूर नई बात हो सकती है। लेकिन मलाईदार सरकारी महकमों से पत्रकारों को इस तरह पैसा मिलना कोई नई बात नहीं है।आबकारी, वन, लोक निर्माण, वाणिज्यिक कर, स्वास्थ्य आदि कई महकमे हैं, जिनसे संबंधित बीट के रिपोर्टरों, अखबारों के संपादकनुमा दलालों को और अखबार मालिकों को उनकी हैसियत के मुताबिक पैसा मिलता है। विज्ञापन के रूप में जो आधिकारिक खैरात मिलती है सो अलग।दरअसल सत्ता में बैठे लोगों द्वारा अपने भ्रष्ट कारनामों पर परदा डालने के लिए अखबार मालिकों और पत्रकारों भ्रष्ट बनाने का सिलसिला अखिल भारतीय है और बहुत पुराना है। मध्य प्रदेश में इस खेल की शुरुआत अस्सी के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने की थी।उन्होंने अखबार मालिकों और पत्रकारों का ईमान खरीदने के लिए खूब जमीन के टुकड़े और सरकारी मकान बांटे। यही नहीं, उन्होंने तो मध्य प्रदेश में फर्जी पत्रकारों की एक बड़ी भारी नई जमात ही पैदा कर उसे सत्ता की दलाली में लगा दिया था।उस दौर में अर्जुनसिंह के दरबार में मुजरा करने वाली बेगैरत पत्रकारों की इस जमात ने अर्जुनसिह को ‘संवेदनशील मुख्यमंत्री’ का खिताब अता किया था।इस ‘संवेदनशील मुख्यमंत्री’ ने अपनी ‘संवेदना’ के छींटे सिर्फ मध्य प्रदेश के पत्रकारों पर ही नहीं, बल्कि दिल्ली में रहकर सत्ता की दलाली करने वाले कुछ दोयम दर्जे के साहित्यकारों और पत्रकारों पर भी डाले थे और उन्हें इंदौर व भोपाल जैसे शहरों में जमीन के टुकड़े आबंटित किए थे।अपने राजनीतिक हरम की इन्हीं बांदियों की मदद से अर्जुन सिंह चुरहट लॉटरी, तेंदूपत्ता और आसवनी कांड जैसे कुख्यात कारनामों को दफनाने में कामयाब रहे थे। इतना ही नहीं, 25 हजार से ज्यादा लोगों का हत्यारा भोपाल गैस कांड भी अर्जुन सिंह का बाल बांका नहीं कर पाया था।अर्जुन सिंह अपने इन कृपापात्र/पालतू दलालों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों की छवि मलिन करने और उन्हें ठिकाने लगाने में भी किया करते थे। उनके इन राजनीतिक विरोधियों में ज्यादातर उनकी अपनी पार्टी के नेता ही होते थे।अर्जुन सिंह की इस परंपरा को बाद दिग्विजय सिंह ने भी जारी रखा लेकिन सीमित तौर पर, लेकिन उनके बाद आरएसएस की संस्कार शाला से निकले शिवराज सिंह चौहान ने तो इस मामले में मन ही मन अर्जुन सिंह को अपना गुरू मान लिया। उनके नक्श-ए-कदम पर चलते हुए शिवराज सिंह भी मीडिया से जुड़े लोगों को जमीन के टुकडों और विज्ञापनों की खूब खैरात बांटी।मीडिया को साध कर ही वे ‘व्यापम’ जैसे खूंखार कांड तथा ऐसे ही कई अन्य मामलों को दफनाने में पूरी तरह कामयाब रहे।
आठ साल पहले 2016 में करीब 300 पत्रकारों और अखबार मालिकों को भोपाल के पॉश एरिया में औने-पौने दामों में आवासीय भूखंड आबंटित किए थे।उनके द्बारा उपकृत किए गए पत्रकारों की सूची में कुछ नाम तो ऐसे भी थे, जो निजी मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज के परोक्ष-अपरोक्ष रुप से संचालक हैं और इस नाते खुद भी ‘व्यापम’ की लूट में भागीदार रहे हैं और कुछ ने तो व्यापम की कमाई से अपना ही अखबार शुरू कर दिया।कुछ नाम ऐसे भी थे जिनका भूमि से अनुराग बहुत पुराना है। उन्होंने अपने इसी भूमि-प्रेम के चलते पिछले चार दशक के दौरान अपवाद स्वरुप एक-दो को छोड़कर लगभग सभी मुख्यमंत्रियों से सरकारी मकान और जमीन के टुकड़े ही नहीं बल्कि दूसरी तरह की और भी कई इनायतें हासिल की हैं।अब चूंकि मीडिया संस्थानों में कॉरपोरेट संस्कृति के प्रवेश के बाद अहंकारी, मूर्ख, नाकारा, क्रूर और परपीड़क संपादकों और संपादकनुमा दूसरे चापलूस कारकूनों के साथ किसी भी काबिल, ईमानदार और पेशेवर व्यक्ति का खुद्दारी के साथ काम करना आसान नहीं रह गया है, यानी नौकरी पर अनिश्चितता की तलवार हमेशा लटकी रहती है।लिहाजा मीडिया संस्थानों में साधारण वेतन पर ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ काम रहे पत्रकारों को सरकार अगर रियायती दरों पर भूखंड देती है तो इस पर शायद ही किसी को ऐतराज होगा।होना भी नहीं चाहिए, लेकिन इन्हीं मीडिया संस्थानों में दो से तीन लाख रुपए महीने तक की तनख्वाह पाने वाले धंधेबाजों और प्रबंधन के आदेश पर घटिया से घटिया काम करने को तत्पर रहने वालों को सरकार से औने-पौने दामों पर भूखंड क्यों मिलना चाहिए?मैं मध्य प्रदेश में कुछ ऐसे भू-संपदा प्रेमी पत्रकारों यानी दलालों को जानता हूं जिन्होंने अपने कॅरिअर के दौरान मध्य प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में, जिस-जिस शहर में काम किया है, वहां-वहां पत्रकारिता से इतर अपनी दीगर प्रतिभा के दम पर अचल संपत्ति अर्जित की है और मध्य प्रदेश सरकार से भी लाखों की जमीन कौड़ियों के मोल लेने में कोई संकोच नहीं दिखाया।ऐसे ‘महानुभाव’ जब किसी राजनीतिक व्यक्ति के घपले-घोटाले पर कुछ लिखते हुए या सार्वजनिक मंच से नैतिकता और ईमानदारी की बात करते दिखते हैं, तो उनमें सिर्फ और सिर्फ आसाराम, गुरमीत राम रहीम, नित्यानंद, रामदेव, रविशंकर, जग्गी वासुदेव जैसे लम्पटों और धंधेबाज बाबाओं की छवि नजर आती है।हालांकि पत्रकारिता के इस पतन को सिर्फ मध्य प्रदेश के संदर्भ में ही नहीं देखा जाना चाहिए, यह अखिल भारतीय परिघटना है।नवउदारीकरण यानी बाजारवादी अर्थव्यवस्था ने हमारे सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर नकारात्मक असर डाला है, उन्हें भ्रष्ट से भ्रष्टतम बनाया है। पत्रकारिता भी उनमें से ऐसा ही एक क्षेत्र है। इसलिए ऐसी पतनशील प्रवृत्तियों को विकसित होते देखने के लिए हम अभिशप्त हैं।
(साभार जनचौक)
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

: मध्यप्रदेश में निवेशः कैफियत से पहले अपनी हैसियत देखिए!
Tue, Nov 5, 2024
जुबानी जमाखर्च और विज्ञापनों में ढोल पीटने से कुछ नहीं होने वाला
साँच कहै ता/जयराम शुक्ल
हमारा मध्यप्रदेश निवेशप्रेमी है। चौबीसों घंटे फिकर रहती है कि कोई आए पैसा लगाए। देशी आए, विदेशी आए सबके लिए खुला मैदान है। हर अँतरे साल निवेशक सम्मेलन होते थे, नई सरकार ने तो ऐसे आयोजनों की झड़ी सी लगा रखी है। फ़रवरी में भोपाल में महाविराट ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट है। समूची सरकार घरातियों की तरह पंडाल सजाए अभी से खड़ी है। आखिर अपना प्रदेश है ही..सुख का दाता सबका साथी। यहां जल है,जंगल है,जमीन है, जमीन के अंदर खनिज है,क्या कुछ नही है? खेती को तो चमका के नंबर एक कर दिया। ओला-पाला और फसल चरने के लिए छुट्टा मवेशियों की छूट के बावजूद भी हर साल अन्न उत्पादन का कृषि कर्मण पुरस्कार हमी जीत रहे हैं। सबइ कुछ अच्छा-अच्छा है। अब उद्योग धंधों में नंबर एक होना है।मुख्यमंत्रीजी, अफसर सभी विदेश यात्राओं में निवेशकों को रिझाने जाते आते रहते हैं। बिना व्यापार फैले ग्रोथ रेट कैसे मेंटेन होगी। सो जरूरी है कि कोई आए पूँजी फँसाए।इतने सद्प्रयासों के बाद भी उद्योगपति कम ही आना चाहते हैं। इनवेस्टर्स मीट में जो करारनामे होते हैं उनमें आधे भी नहीं आते। जो छोटे, मझोले उद्योग धंधे सरकारी सब्सिडी के चक्कर में लगते भी हैं वो दो तीन साल बाद गश खा के गिर पड़ते हैं।इतनी रियायतों, आवभगत, आरजूमिन्नत के बाद भी मध्यप्रदेश धंधे व्यापार वाला स्टेट क्यों नहीं बन पा रहा है ? यह यक्ष प्रश्न दिमाग में घुमड़ता रहता है। मेरे परिवार के कई बच्चे देश-विदेश की अच्छी फर्मों में छोटे, मझले, ऊँचे पदों पर बिजनेस एक्जक्यूटिव से लेकर जीएम, प्रेसिडेंट तक हैं। वे मेरे साथ वाट्सअप ग्रुप में जुड़े हैं। मैंने उनके सामने यही यक्षप्रश्न रखा..यह बताते हुए कि मुझे न अर्थशास्त्र की समझ है और न ही बिजनेस की तमीज। प्रदेश का एक साधारण नागरिक होने के नाते जानना चाहता हूँ कि ऐसा क्यों है जबकि प्राकृतिक संसाधनों के मामलों में हम उन कई प्रदेशों के आगे हैं जो हमसे व्यापार-उद्योग में आगे हैं।इस विषय पर अच्छी खासी बहस चली बुद्धि विलास हुआ। निष्कर्ष एक लाइन में निकला कि मध्यप्रदेश में अब तक बिजनेस कल्चर ही नहीं बन पाया है।कोई भी संस्कृति वहां के शिक्षा संस्थानों के उद्गम से निकलती है। चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त क्यों प्रतापी हुए? इसलिए कि वहां नलंदा था उसके समकक्ष तक्षशिला था,अर्थशास्त्री कौटिल्य थे,अमात्य राक्षस जैसे विद्वान मंत्री थे। ये इतिहास की बातें है। अब गुजरात को ही लें उद्योग-व्यापार में गुजरात देश का सिरमौर मुकुट क्यों बना है.? इसलिए कि वहाँ आईआईएम अहमदाबाद है। वाणिज्य की शिक्षा में इसके जोड़ का दूसरा संस्थान नहीं। फिर महाराष्ट्र को लें, निजी और सरकारी क्षेत्र के एक से एक उम्दा बिजनेस स्कूल हैं। चंद्रबाबू नायडू ने देखते ही देखते आंध्रप्रदेश को दक्षिण भारत के प्रदेशों में अग्रगण्य बना दिया। जहाँ अच्छे बिजनेस स्कूल्स हैं वहां उद्योग व्यापार की भी बरक्कत है भले ही वहाँ मध्यप्रदेश जैसे प्राकृतिक संसाधन न हो। क्लिंटन ने एक बार यूरोपियन यूनियन की बैठक में कहा था कि अमेरिका इसलिए उन्नत है क्योंकि यहां की सड़कें अच्छी हैं। अमेरिका जैसे बनने की ख्वाहिश अच्छी है,उससे तुलना भी किया जाना कोई दुस्साहस या गुनाह नहीं है पर उसके जैसे बनने के लिए बढ़ते हुए कदम भी दिखने चाहिए। अमेरिका दुनिया का दादा क्यों है? इसलिए नहीं कि उसके पास एटमी, स्कड, पैट्रियट, इंटरकॉन्टिनेंटल मिसाईलें हैं। वह दुनिया में सर्वश्रेष्ठ इसलिए है कि विश्व की श्रेष्ठ 10 यूनिवर्सिटीज में पाँच अमेरिका में हैं।
भारत का कोई भी शैक्षणिक संस्थान विश्व के टॉप 200 में भी नहीं
बात अपने मध्यप्रदेश और यहाँ की उद्योग-वाणिज्य-व्यापार की संस्कृति के संन्दर्भ में कर रहा था। मध्यप्रदेश के शैक्षणिक संस्थानों की देश में वही स्थिति है जो देश की विश्व के पैमाने पर। मध्यप्रदेश के संस्थानों को 100 में भी जगह पाना मुश्किल। इंडिया टुडे के इस साल के अंक ने देश के टाँप हंड्रेड बिजनेस स्कूल्स की सूची जारी की है। आईआईएम इंदौर को नौवां स्थान मिला है। इंदौर के ही एक निजी संस्थान प्रेस्टीज इंस्टीट्यूट सूची में 58वें स्थान पर है। आईआईएम इंदौर को एचआरडी का उपक्रम मान लें तो सौ की सूची में एक मात्र प्रेस्टीज इंस्टीट्यूट है। कमाल की बात यह कि टाँप 10 में सिर्फ़ पाँच ही आईआईएम आ पाए बाकी सभी निजी क्षेत्र के हैं। टाप 100 में भी महाराष्ट्र, गुजरात, दक्षिण व एक दो दिल्ली के हैं। कहने का आशय यह कि मध्यप्रदेश आज भी उच्चशिक्षा के क्षेत्र में कंगाल ही है। सिर्फ एमबीए कराने वाले बिजनेस इंस्टीट्यूट की ही बात करें तो पूरे प्रदेश में 200 से ज्यादा हैं। लगभग प्रत्येक विश्विद्यालय में एमबीए की पढ़ाई होने लगी है। लाख़ की संख्या में प्रतिवर्ष यहाँ से बिजनेस एक्जीक्यूटिव व टेक्नोक्रेट निकलते हैं। एचआरडी के आँकड़े पूरे देश के संस्थानों में से महज 7 प्रतिशत पासआउट को काबिल बताते हैं तो मध्यप्रदेश की स्थिति क्या होगी आप स्वयं अंदाज लगा सकते हैं।प्रदेश में उच्च शिक्षा सबसे निम्न स्तर पर है। व्यवसायिक शिक्षा उससे भी गई गुजरी। सभी संस्थान नोटों की फसलें काटने में लगे हैं। ज्यादातर ज्यादातर नेताओं की साझेदारी वाले हैं। गुणवत्ता नियंत्रण का कोई पैमाना नहीं। अधकचरी दिमाग की फैकल्टी के पढ़ाए बच्चे निकल रहे हैं। आप दो साल के लिए न कृषि कर्मण की सोचिए, न ही इनवेस्टर मीट की। ये दो साल शैक्षणिक संस्थानों की गुणवत्ता के लिए दीजिए। बंद करिए सभी बोगस संस्थाएं जो रिजल्ट न देती हों। संख्या भले ही 100 से घटाकर 10 करना पड़े करए। वर्ल्ड क्लास न सही नेशनल क्लास इंस्टीट्यूट तैय्यार करिए, फिर देखिए उसी के दहाने से वो संस्कृति निकलेगी जो उद्योग-व्यापार के मामले में गुजरात को गुजरात बनाती है और महाराष्ट्र को महाराष्ट्र। जुबानी जुबां खर्च और ढोल और विज्ञापनों में ढोल पीटने से कुछ होने जाने वाला नहीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। मध्य प्रदेश के रीवा में रहते हैं।)

: MP में सात हाथियों की मौत, जानिए कैसे?
Thu, Oct 31, 2024
क्या जहरीली फसल खाने से हुई 7 हाथियों की मौत, क्यों नाग-नागिन से जुड़ रहे तार
-मध्य प्रदेश में हाथियों की मौत की जांच के लिए एसआईटी गठित
उमरिया (मध्य़ प्रदेश)।
मध्य प्रदेश में 7 हाथियों की मौत हो गई है। 3 की हालत गंभीर है। ये हाथी 13 हाथियों के झुंड का हिस्सा था। इस घटना हड़कंप मचा हुआ है। तरह-तरह की चर्चाएं हो रही हैं। लोगों के अपने दावे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि कोदो खाने की वजह से हाथियों की मौत हुई है।मध्य प्रदेश के उमरिया जिले के 7 हाथियों की मौत से हड़कंप मचा हुआ है। वन विभाग के एक अधिकारी ने बुधवार को बताया कि बांधवगढ़ बाघ अभयारण्य में अबतक 7 हाथियों की मौत हो चुकी है। इस मामले में वन मंत्री ने एसआईटी से जांच कराने के आदेश दिए हैं। साथ ही अधिकारियों को सख्त कार्रवाई करने के निर्देश दिए हैं। हाथियों की मौत कोदो खाने की वजह से हुई है, ऐसा विशेषज्ञों का मानना है।बीटीआर के उप निदेशक का कहना है, ऐसा लगता है कि हाथियों की मौत बाजरा खाने से हुई है। पोस्टमार्टम के बाद ही सही कारण का पता चल सकेगा। मंगलवार को बीटीआर (बांधवगढ़ बाघ अभयारण्य) में 4 हाथी मृत पाए गए थे। अब 3 और हाथियों की मौत हो गई है। ये हाथी 13 हाथियों के झुंड का हिस्सा थो। 3 अन्य हाथियों की हालत गंभीर है। उनका इलाज चल रहा है। बीटीआर की टीम झुंड के अन्य हाथियों पर नजर रख रही है।
हाथियों की मौत दुखद और हृदय विदारक: वन मंत्री
हाथियों की मौत पर वन मंत्री रावत ने मंगलवार देर रात कहा था कि अभयारण्य में हाथियों की असामयिक मौत दुखद और हृदय विदारक है। मामले की गंभीरता को देखते हुए एसआईटी गठित करने और सख्त कार्रवाई करने के निर्देश दिए गए हैं। मंत्री ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर पोस्ट करके ये बात कही थी।
क्या नाग-नागिन के संबंध बनाने से जहरीली हुई फसल?
मोटे अनाज की खेती करने वाले बुजुर्ग किसानों का मानना है कि खेत में नाग-नागिन के जोड़े द्वारा संबंध बनाने की वजह से फसल जहरीली हो जाती है। हो सकता है कि जिन हाथियों की मौत हुई है, उन्होंने जिस खेत की फसल खाई हो वहां नाग-नागिन ने संबंध बनाए हों। सच क्या है, ये तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट से ही पता चलेगा। फिलहाल, इस मामले में सियासत भी तेज है।
7 हाथियों की मौत हैरान करने वाली बात: जयराम रमेश
कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि इसकी जांच होनी चाहिए। आगे ऐसा न हो, इसके लिए जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए। बांधवगढ़ बाघ अभयारण्य में सात हाथियों की मौत हतप्रभ करने वाली बात है। इससे अभयारण्य में हाथियों की आबादी का करीब 10 फीसदी हिस्सा एक ही बार में खत्म हो जाएगा। इसकी तुरंत जांच होनी चाहिए।