हेमंत कुमार झा
"पोस्ट-आइडियोलॉजिकल पॉलिटिक्स" कभी मनुष्य की मुक्ति के लिए संघर्ष नहीं कर सकता, न कामगार समुदायों के सवालों से मुठभेड़ कर सकता है।
यह वंचित समुदायों के विशाल मतदाता समूह के जीवन को थोड़ा आसान बना कर उसका समर्थन हासिल करना चाहता है, मध्य वर्ग को अपनी नैतिक शुचिता से आकर्षित करना चाहता है जबकि कॉरपोरेट समूह, जिसे प्रभु वर्ग कह सकते हैं, के हितों के साथ सामंजस्य बिठा कर चलना चाहता है।
राजनीति के इस स्वरूप का अपना कोई वैचारिक तेज नहीं होता इसलिए इसमें कोई धार भी नहीं होती। समाज के सुलगते सवालों से कन्नी काट कर निकल जाने की इसकी प्रवृत्ति होती है क्योंकि सवालों के जवाब स्पष्ट वैचारिक आधार की मांग तो करते ही हैं।
अरविंद केजरीवाल, प्रशांत किशोर जैसे नेता और उनकी पार्टियां पोस्ट-आइडियोलॉजिकल पॉलिटिक्स के खुले उदाहरण हैं जबकि व्यक्ति सह जाति आधारित कई अन्य पार्टियां ऐसी हैं जो बाहरी आवरण में तो वैचारिकता का झीना आवरण ओढ़े रहती हैं लेकिन भीतरी तौर पर वे विचारधारा मुक्त रह कर महज राजनीतिक हितों से संचालित हैं।
बिहार, उत्तर प्रदेश की जाति और नेता आधारित कई पार्टियों को इसके सटीक उदाहरण के रूप में समझा जा सकता है।
जो विचारधारा का झीना आवरण ओढ वैचारिक आग्रहों से मुक्त राजनीति करते हैं उन्हें प्रभावित कर अपने पाले में कर लेना कॉर्पोरेट हितों से संचालित सत्ता संरचना के लिए अधिक कठिन नहीं। यही कारण है कि छोटे छोटे जातीय समूहों के बड़े बड़े नेता आसानी से भाजपा द्वारा अपने पाले में समेट लिए जाते हैं।
भाजपा के पास सत्ता है, अकूत पैसा है, कॉरपोरेट का समर्थन है तो हिन्दी पट्टी की लगभग तमाम छोटी जातीय पार्टियां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उसके पाले में हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि उन पार्टियों के मतदाता समूहों के व्यापक हित और भविष्य भाजपा के व्यापक उद्देश्यों के समक्ष सुरक्षित हैं या नहीं। नेता जी को चूंकि भाजपा के झंडे तले रहने में सत्ता सुख है, खूब सारा पैसा कमा लेने की सुविधा है, अपने बेटे, बहू , दामाद, बहनोई, रिश्तेदार, अमला, जमला आदि को सेट करने का अवसर है, तो उनके आह्वान पर उनके प्रति समर्पित उनका जातीय वोट भाजपा का है।
अब, इससे क्या फर्क पड़ता है कि भाजपा उस नवउदारवादी व्यवस्था की झंडाबरदार है जो वंचित समूहों के शोषण और उनकी आह से खाद पानी पाती है।
कल को कोई दूसरा राजनीतिक तबका इनका झंडाबरदार होगा, सत्ता में आएगा, ये तमाम छोटी पार्टियां उसके तंबू में नजर आएंगी। विचारों से कोई मतलब नहीं, पाला बदलने के लिए बस फौरी बहानों की जरूरत है।
सत्ता संरचना की डोर संभाले कॉरपोरेट यानी प्रभु वर्ग को पता है कि विचारों से जब भी उनका सामना होगा, जनता के सामने उनकी कलई खुलेगी। कलई खुलेगी तो जनता बेचैन होगी और बेचैन जनता अगर विरोध में उतर आई तो क्या अंबानी, क्या अडानी, क्या टाटा, बिड़ला, मित्तल, फ़ित्तल, ऑदरेज, गोदरेज....।
इसलिए, बड़ी ही होशियारी से राजनीति वैचारिकी से किनारा करती प्रैक्टिकल बनती जा रही है।
लोग गरीबी से बिलबिला रहे हैं...मुफ्त अनाज दे दो, इस नाम उस नाम से थोड़े नकद दे दो। बिलबिलाहट में थोड़ा सा भी कुछ मिलना बड़ा सुकून देता है। लोग बड़े सवालों के बारे में सोच ही नहीं पाते कि हम तो मुफ्त अनाज की लाइन में खड़े हैं, हमारा बेटा भी क्या लाइन में ही खड़ा होगा एक दिन।
सत्ता संरचना नहीं चाहती कि क्वालिटी शिक्षा समान रूप से सबको मयस्सर हो, उच्च शिक्षा परिसरों में वैचारिक संघर्षों को धार मिले। इसके लिए वह तमाम षड्यंत्र करने पर उतारू है।
मीडिया कभी शिक्षा का एक माध्यम था, अब कुशिक्षा फैलाने का हथियार है। देखते ही देखते मुख्यधारा का मीडिया कब मनुष्य और मनुष्यता विरोधी बन गया, लोग समझ नहीं पाए। मीडिया ने लोगों को मनुष्यता के सिद्धांतों और अपने जीवन से जुड़े जरूरी सवालों से विमुख करने की जैसे सुपारी ले ली और बहुत हद तक सफल भी रहा।
जिन पार्टियों का आधार वैचारिक है, उनके आंतरिक अंतर्विरोधों को साध कर नवउदारवादी शक्तियां उन्हें निस्तेज करने की हर कोशिश करती हैं। राजद, सपा जैसी पार्टियों का अपना वैचारिक आधार है, मतदाताओं के एक बड़े हिस्से पर उनका राजनीतिक प्रभाव है तो वंशवाद के आरोपों और भ्रष्टाचार आदि को हथियार बना कर उन्हें निस्तेज करने की कम कोशिशें नहीं होती।
मजबूत वैचारिक आधार और सशक्त राजनीतिक समर्थन के बावजूद ऐसी पार्टियों के कई नेताओं को सीबीआई, ई डी आदि का डर बना रहता है और यह डर निर्णायक अवसरों पर उन्हें निस्तेज सा बना देता है। अक्सर प्रतीत होता है कि वे खुल कर सामने नहीं आ रहे क्योंकि कोई डर है जो उन्हें घेरे है, कोई है जो उन्हें डरा रहा है, कुछ है ऐसा जो उन्हें उभर कर सामने आने नहीं दे रहा।
जो जिस हद तक नहीं डरा, उस हद तक उसका पीछा किया गया, उसे परेशान किया गया, आज भी किया जा रहा है। लालू प्रसाद इसके एक उदाहरण हैं। उन पर या उनके परिवार पर जितने बड़े घोटाले का आरोप है उससे कई कई गुना डकार कर बैठे लोग राजनीति में अभिनंदित हो रहे हैं लेकिन लालू परिवार पर न जाने कितनी तरह की जांच, कितने तरह के आरोप। पता नहीं कितना सच, कितना झूठ।
राहुल गांधी विचारों की बात करने हैं, अर्थव्यवस्था और राजनीति पर कॉर्पोरेट के नाजायज वर्चस्व की बात करते हैं, सरकारी कंपनियों को उदाहरण बना कर अग्रणी बनाए रखने की बातें करते हैं, हाशिए के लोगों के अधिकारों की बातें करते हैं तो उनकी छवि पर आघात पहुंचाने की कौन सी कसर बाकी रखी गई, सब सामने है।
बिहार जैसे संकटग्रस्त और भयानक गैर बराबरी से जूझते राज्य में आज भी वामदलों की, खास कर माले की मजबूत उपस्थिति है, गांवों में गरीबों के बीच उसकी सक्रियता दिखती है, कामगारों के सवालों पर उसके नेता सदन से लेकर सड़कों पर आवाज उठाते रहते हैं किंतु मीडिया उन्हें कवरेज नहीं देता। इन नेताओं को सीबीआई या ईडी से भी डराया नहीं जा सकता। इसलिए सत्ता संरचना ही उनसे डरती है और उनके खिलाफ तमाम षड्यंत्र रचती है।
मीडिया ऐसे नेताओं को बहुत अधिक कवरेज देता है जो पोस्ट-आइडियोलॉजिकल पॉलिटिक्स, यानी स्पष्ट वैचारिक आधार के बिना राजनीति करने वाले नेता होते हैं। वे मैनेजमेंट में निष्णात होते हैं तो मीडिया मैनेज करना भी उन्हें आता है। सत्ता संरचना का भोंपू बना मीडिया भी उन्हें चर्चाओं के केंद्र में रख कर अपनी विचार विरोधी भूमिका को निष्ठा से निभाता है।
नवउदारवाद की साढ़े तीन दशक की यात्रा के बाद भारत का राजनीतिक परिदृश्य आज वैचारिक संघर्षों की आंच में तप रहा होना चाहिए था। लेकिन, ऐसा नजर नहीं आ रहा। आर्थिक अधिकारों के सवाल, अर्थ नीतियों के सवाल, रोजगार और क्वालिटी शिक्षा और चिकित्सा के सवाल वैचारिक राजनीति के द्वंद्व की आंच में तप कर ही प्रभावी होंगे, इसलिए इस आंच को ही मद्धिम करने और किए रहने के षड्यंत्र हो रहे हैं।
भारत जैसी जटिल सामाजिक, आर्थिक संरचना में जितने सवाल खड़े हैं उनसे मुठभेड़ के लिए जिस राजनीतिक तेज की जरूरत है वह विचारों से ही प्राप्त हो सकता है। न राजनीति का जातीय स्वरूप ज्वलंत सवालों से मुठभेड़ कर नई दुनिया रच सकता है, न आप या जनसुराज जैसी पार्टियां बहुत दूर तक की यात्रा कर सकती हैं। सुशासन साधन बन सकता है, साध्य नहीं है। सुशासन के नारे को बीस वर्षों से लगाते रहने के बाद भी नीतीश कुमार बिहार को पलायन से मुक्ति नहीं दिला सके, केजरीवाल दस वर्षों तक राज करने के बाद भी दिल्ली को समस्याओं के अंबार पर छोड़ गए, ग्यारह वर्षों के बाद मोदी भारत की आबादी के बड़े हिस्से को आर्थिक ज़हालत से निजात दिलाने की बात तो दूर, उल्टे हाशिए पर धकेल कर आज अस्त होने की ओर बढ़ चले हैं।
पोस्ट-आइडियोलॉजिकल पॉलिटिक्स भारत के लिए नहीं है। ऐसा भारत, जो न जाने कितने ज्वलंत सवालों से जूझ रहा है। स्पष्ट वैचारिक आधार और उसके लिए अनवरत संघर्ष का माद्दा रखने वाले नेता और राजनीतिक दल ही दीर्घजीवी और प्रासंगिक बने रह पाएंगे। भारत को, विशेष कर हिन्दी पट्टी के इलाकों को उनकी ही जरूरत भी है।
(लेखक पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)