
: INDIA V/S NDA : 1947 से आज तक एक कसक है कुर्मी समाज के मन में, जानिए क्या
Fri, Aug 11, 2023
लोकसभा चुनाव 2024 :
सरदार पटेल तो नेहरू की वजह से नहीं बन सके पीएम, नीतीश की राह में कौन बन रहा रोड़ा
-कुमार दुर्गेश
1947 के बाद से ही कई लोगों की कसक है कि नेहरू की वजह से सरदार पटेल प्रधानमंत्री नही बन सके। कुर्मी समाज के लोगों को यह अफसोस ज्यादा रहता है। यह कसक उत्तर प्रदेश के कुर्मी समाज के लोगों में तो और ज्यादा है। आर्थिक, शैक्षणिक रूप से बिहार के मुकाबले ज्यादा सक्षम होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के कुर्मी समाज के लोग कभी सत्ता में अपने समाज के किसी व्यक्ति को शीर्ष स्थान पर नहीं बिठा सके।महामना रामस्वरूप वर्मा और बेनी प्रसाद वर्मा इस समाज में सबसे ज्यादा ऊंचाई प्राप्त करने वाले नेता रहे हैं। सीएम पद के लिए जब मुलायम और अजीत सिंह में ठनी थी तो बेनी बाबू मुख्यमंत्री बनने से चूक गए हैं। जो भी हो, हर किसी के मुकद्दर में सिकंदर होना नहीं होता है।लेकिन उत्तर प्रदेश का कुर्मी समाज इस पर प्रधानमंत्री चुनेगा। यह लगभग तय है कि नीतीश कुमार फूलपुर से चुनाव लड़ेंगे। यह फूलपुर जो नेहरू बनाम लोहिया को लड़ते हुए देखा है, वीपी सिंह को देखा है, वह अब देश बचाने की लड़ाई लड़ते हुए नीतीश कुमार को देखेगा। किंतु सवाल इससे ज्यादा बड़ा है।उत्तर प्रदेश के कुर्मी समाज को तय करना है कि क्या वो राजनीति की बारीकियां ब्राम्हणों की तरह, भूमिहारों की तरह, बनियों की तरह अपने हितों को समझता है? क्या उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की राजनीति की नई धारा का नेतृत्व करने के लिए तैयार है?जी हां! नीतीश जी सिर्फ फूलपुर से चुनाव ही नहीं लड़ेंगे बल्कि उत्तर प्रदेश में उनके सान्निध्य में कई नए लोग राजनीति की शुरुआत करेंगे। जेडीयू इतनी लोकसभा सीटों पर गठबंधन में जरूर लड़ेगा जितनी Aristocrat Politician की पार्टी अपना दल को सीटें नहीं मिलती है।जिस मोदी सरकार के दौर में देश के ओबीसी खास कर पढ़े लिखे कुरमी समाज को सबसे ज्यादा सरकारी नौकरियों का नुकसान हुआ है, उस समाज के लोगों के सामने राजनीति का विकल्प दिया जाए तो निश्चित तौर पर निर्णय लेना चाहिए कि इस रास्ते में जो भी आए उसे राजनीतिक रुप से निपटाना चाहिए।नीतीश कुमार के रास्ते में कोई कुर्मी समाज का ही व्यक्ति आए तो उसके खिलाफ कैसा राजनीतिक सलूक किया जाना चाहिए, यह तय करने का वक्त आ गया है। क्योंकि नीतीश की धारा सामाजिक न्याय की धारा है। सामाजिक न्याय की धारा किसान, पशुपालक, कामगार, बेरोजगार और महिलाओं की धारा है। जबकि पूंजीवाद तो बनियों की धारा है। इसलिए अब सरदार पटेल को लेकर आह करने की जरूरत नहीं है, बल्कि निर्णय लेने का समय है।कई लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि उत्तर प्रदेश के कुर्मी नेताओं का रुख क्या होगा? समाज का तो रुख नीतीश की तरफ यूपी में बिहार से भी ज्यादा उत्साह से भरा हुआ है। भला हो भी क्यों न, ऐसा यदि नरेंद्र मोदी को पीएम बनाने के लिए सारी व्यवसायिक जातियां एक हो सकती हैं तो नीतीश के नाम पर किसानी जातियां क्यों नहीं एक हो सकती है? इसमें बुराई क्या है?किंतु नीतीश कुमार की जाति समूह का नेता यदि सामाजिक चेतना के खिलाफ जाएगा तो हमें कहना पड़ेगा कि सियासत में बाजीगरी नहीं जानते तो चुप ही रहिए। यदि हैसियत आंख में आंख मिला कर अपने वर्ग के हितों की हिफाजत करने लायक नहीं है तो इस रास्ते में मत आइए।मनुवाद की पालकी ढोने का नहीं, बल्कि यह समय किसानियत और इंसानियत की बात करने का है। नीतीश कुमार सिर्फ दिल्ली नहीं लखनऊ पर भी नजर गड़ा चुके हैं। चूके होंगे सरदार, नीतीश नहीं।
लेखक सामाजिक चिंतक हैं।

: नागरिक समाज, सामाजिक पूंजी और फासीवाद, पढ़िए जानकारीपरक आलेख...
Fri, Aug 4, 2023
Civil Society, Social Capital and Fascism
आचार्य निरंजन सिन्हा
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कुछ (सामान्य) समाज में 'नागरिक समाज' (Civil Society) अपने 'सामाजिक पूंजी' (Social Capital) का नकारात्मक उपयोग कर, यानि अपने विशेष प्रकार के संबंध से 'फासीवाद' (Fascism) को उत्पन्न करता है और उसे मजबूत भी बनाता है।
इस प्रक्रिया (Process), क्रियाविधि (Mechanism) और इसके मौलिक कारकों और चरित्रों (Basic Factors n Characters) को समझने में यह आलेख आपकी सहायता करेगा।
इससे आप किसी भी समाज में हो रही गतिविधियों से निकट भविष्य में उत्पन्न होने वाला 'फांसीवाद' को समझ सकते हैं और उसमें अपनी, अपने परिवार, समाज और राष्ट्र का हश्र अभी से देख सकते हैं।
इसे समझने के लिए हमें संक्षेप में 'नागरिक समाज', 'सामाजिक पूंजी' और 'फासीवाद' को समझ लेना आवश्यक है। इसी तीनों के संयुक्त क्रियाविधि से फासीवाद का मौलिक चरित्र, यानि मौलिक लक्ष्य, यानि व्यवहारिक पक्ष स्पष्ट होता है। इसके अलावा हमें
समाज के चारों प्रक्षेत्र (Sectors), यानि 'राज्य' (राज सत्ता State), 'बाजार' (Market), 'नागरिक समाज', और 'परिवार' (Family)
के भी मौलिक चरित्र को समझना चाहिए, क्योंकि ये सभी एक दूसरे से गुंथे हुए हैं।सबसे पहले हमें
'सामाजिक पूंजी'
को समझना चाहिए। पूंजी की सर्वव्यापक अवधारणा यह है कि
पूंजी (Capital)
वह धन (Wealth) या सम्पदा (Asset) होता है, जो उत्पादक होता है, यानि लाभ देने वाला होता है। इसी तरह
जब कोई व्यक्ति अपने तथाकथित समाज के सदस्यों के आपसी नेटवर्क के कारण उस समाज से अन्यथा लाभ प्राप्त करता है, या उसे लाभ पहुंचाता है, तो इसे 'सामाजिक पूंजी' कहते हैं।
सामाजिक पूंजी सदस्यों के नेटवर्कों के आपसी जाल से बनता है, और यही नेटवर्क उनके सामाजिक संपर्क के व्यक्तियों और उनके समूहों की उत्पादकता को प्रभावित करता है। लोग विभिन्न लक्ष्यों एवं उद्देश्यों से अपने सम्पर्कों और रिश्तों को एक महत्त्वपूर्ण संसाधन की तरह इस्तेमाल करते हैं।यह आपसी संबंधों पर आधारित होता है, जो एक सामान्य पहचान, मूल्य, प्रतिमान, विश्वास, सहयोग, पारस्पारिकता के कल्पित या वास्तविक अहसास एवं इसके अन्तर्सम्बन्धों से गुंथा हुआ होता है। यह संबंध अपने प्रभावों में काफी असरदार होता है। इस चरित्र को ध्यान से समझा जाय, क्योंकि यही चरित्र फासीवादी स्वरुप को उत्पन्न करने एवं मजबूत करने में काम आता है।स्पष्ट है कि
जब सामाजिक पूंजी का मौलिक चरित्र समाज में नकारात्मक प्रभाव पैदा करता है, तो फासीवादी बन जाता है।
अर्थात सामाजिक पूंजी का कई सकारात्मक और रचनात्मक लाभ भी है। स्थानाभाव में इसे यहां विस्तारित नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा सामाजिक पूंजी जब अपना मौलिक आधार अवैज्ञानिक, अतार्किक, अविवेकी और अलोकतांत्रिक बना लेता है, तो ही फासीवाद जन्म लेता है। तो फासीवादी कहने का क्या अभिप्राय है?यह
'फासीवाद'
की अवधारणा इटली में उत्पन्न हुई, परन्तु यह बाद में विभिन्न नाम स्वरूपों में विश्व में प्रचलित हुई।
मूलतः यह अवधारणा वैसे तंत्र या व्यवस्था के लिए प्रयुक्त होती है, जिन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था, प्रक्रिया और संस्थाओं में कोई विश्वास नहीं होता है, और यह एक गिरोह की तरह कार्यरत होता है। इसका बाह्य आवरण राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक विरासत की गरिमा, और राष्ट्रीय गौरव का हो सकता है
, लेकिन मूल और अन्तर्निहित उद्देश्य जातीय शुद्धता (भारत में इसे वर्ण एवं जाति के नाम से जाना जाता है) की स्थापना का होता है।भारत में "मूल निवासी" आन्दोलन अपने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष स्वरूप में इसी फासीवाद को स्थापित करने के लिए समर्पित है। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसके समर्थकों को इसमें भी राष्ट्रवाद दिखाई देता है, लेकिन इसके किसी भी समर्थकों को यह ध्यान में भी नहीं आता है कि वह फासीवाद का समर्थक भी हो गया है।अब आप देख सकते हैं कि जब प्रबुद्ध और यथास्थितिवादी प्रभावशाली समूह मानवीयता और सम्पूर्ण जनता के पक्ष में नहीं होकर अपने वर्गगत हितों की ओर ही उन्मुख होता है, तो फासीवाद का उदय होता है। ये समूह वर्गगत होता है और क्षेत्रीयता के आधार पर विभिन्न नामों से जा सकता है।
भारत में इसे वर्ण और जाति के नाम से जाना जाता है।
यह जरूरी नहीं है कि फासीवाद अपने अवधारणा में यूरोपीय पैमाने के अनुसार ही हो, यह अन्य स्वरुप में भी हो सकता है, लेकिन मूल चरित्र एक ही होगा, जो स्थायी एवं समरुप होगा। तब यह गिरोह की तरह कार्यरत होता है। तब ऐसे नागरिक समाज अपने सामाजिक पूंजी को इन्हीं प्रभावों, उद्देश्यों, और लक्ष्यों के लिए प्रयोग करते हैं। लेकिन जब सामाजिक पूंजी अपने नकारात्मक क्रियाविधि में आती हैं, तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था और वैज्ञानिकता के विरुद्ध चला जाता है।तब वह यानि सामाजिक पूंजी का उपयोग राज सत्ता पर प्रभाव बढ़ाने और जमाने के लिए होता है और ऐसे 'नागरिक समाज' अपने काल्पनिक या वास्तविक (जो अक्सर नहीं होता है) समानता या निकटता के आधार पर अपने लोगों को सत्ता में स्थान देते हैं। इसमें ऐसे लोगों की शैक्षणिक और कौशलीय योग्यता द्वितीयक हो जाती है, तो यही सामाजिक पूंजी का नकारात्मक प्रभाव पैदा करता है। अर्थात तथाकथित सांस्कृतिक या सामाजिक निकटता ही प्राथमिक उद्देश्य या शर्त है जाता है, और अन्य योग्यताएं प्राथमिक शर्त नहीं रह जाती। यही नकारात्मकता फासीवाद को समर्थन देता है, हालांकि इसे देखने समझने के लिए गहरी मानसिक दृष्टि चाहिए।लेकिन समाज के चारों प्रक्षेत्र यानि 'राज्य' या 'सत्ता', 'बाजार', "नागरिक समाज' और 'परिवार' को भी समझा जाना आवश्यक है, ताकि नागरिक समाज के समेकित क्रियाविधि और प्रभाव को समझा जा सके और इसके नकारात्मक प्रभाव के द्वारा फासीवाद के उदय की प्रक्रिया को समझा जा सके।
'राज्य'
एक सम्प्रभुता सम्पन्न सत्ता का प्रयोग करने वाला संस्थागत प्राधिकरण होता है और इसीलिए इसे शक्ति का स्रोत भी माना जाता है।
इस तरह यह विधान बनाने वाला, उसे लागू कराने वाला और नियमों की व्याख्या करने वाला तंत्र या व्यवस्था होता है। विधान क्या है? यह समाज के व्यवस्थित विकास के लिए स्थापित प्रावधान होता है। इसीलिए सामाजिक वर्ग या हित समूह या गिरोह 'नागरिक समाज' के नाम पर या इसके आड़ में राज्य तंत्र को अपने प्रभाव में रखना चाहता है।लेकिन
'बाजार'
एक सशक्त और प्रभावशाली तंत्र या व्यवस्था या पारितंत्र (Ecosystem) की तरह उभरा है।
आजकल ग्लोबल विलेज (Global Village) के अवतरण के बाद और सूचना प्रौद्योगिकी के प्रभाव में बाजार और शक्तिशाली भी हो गया है
और बहुत से मामलों में अदृश्य (Invisible) क्रियाविधि को अपना लिया है। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की संयुक्त भूमिका ने बाजार तंत्र को ऐतिहासिक रूप में बदल डाला है।
इसने राज्यों की सम्प्रभुता (Sovereignty) को भी संकुचित कर दिया है और राज्याध्यक्ष एवं शासनाध्यक्ष अपने ही देशों में बाजार की शक्तियों के नियंत्राधीन एक "स्थानीय प्रबंधक" (Regional Manager) मात्र की भूमिका में सिमट गए हैं।
बाजार तंत्र का
'व्यवसायिक साम्राज्यवाद' और 'औद्योगिक साम्राज्यवाद
' तो सभी को शारीरिक आंखों से दिख जाता था, लेकिन आज़ भी अधिकतर लोगों को
'वित्तीय साम्राज्यवाद' (Financial Imperialism)
का व्यापकता एवं तीक्ष्णता मानसिक दृष्टि से भी नहीं दिखता है। बाजार के इस नए स्वरूप को एक शताब्दी होने जा रहा है और
इसी की शक्तियों ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अधिकांश देशों को तथाकथित राजनीतिक स्वतंत्रता दिलायी है।
यह बाजार उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों से संचालित, नियमित, नियंत्रित और प्रभावित होता है। बाजार की शक्तियां नागरिक समाज की नकारात्मक क्रियाविधि में अवरोध पैदा करता है, यानि नागरिक समाज की फासीवादी शक्तियों को बाधित करता है। बाजार की शक्तियां ही ऐतिहासिक रुपांतरण करती है और वर्तमान में आधुनिकता का ध्वजवाहक भी है।
''नागरिक समाज''
को समाज का तीसरा प्रक्षेत्र माना जाता है और इसी कारण इसे राज्य और बाजार से भिन्न और राज्य के कार्यकारी नियंत्रण से अलग माना जाता है।
यह एक संगठन के रूप में और एक संस्था के रूप में अस्तित्व में रहता है और कार्य करता है।
इन्हें किसी परिभाषित या स्थापित अवधारणा के अनुसार या किसी खास उद्देश्य के लिए स्थापित गैर सरकारी संगठन या संस्था के रूप में जाना जाता है।यह विधानों से परिभाषित या निबंधित हो सकता है, या संस्था के रूप में संस्कृति या धर्म के आवरण में आवृत रह सकता है। विधानों से परिभाषित संगठन में अधिकार समिति, भाषा विकास संघ आदि कुछ भी उदाहरण हो सकता है। लेकिन
यह नागरिक समाज संस्कृति से आवृत संस्था में जाति, वर्ण, पंथ, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि कुछ भी के स्वरूप में हो सकता है। ध्यान रहे कि यह एक सांस्कृतिक गौरव, विरासत, परम्परा आदि के नाम पर कल्पित या वास्तविक हो सकता है।
इस तरह एक नागरिक समाज जनता में समान लक्ष्य, लाभ या अभिरुचि के लिए एक फ़ोरम या प्लेटफार्म देता है।एक
'परिवार'
समाज का सूक्ष्मतम निर्मात्री ईकाई (Building Blocks) है। और इसी कारण यह राज्य, बाजार और नागरिक समाज का भी निर्मात्री ईकाई हुआ।
कुछ नागरिक समाज सत्ता पर, यानि राज्य पर प्रभावी नियंत्रण के लिए परिवार ईकाई को अशिक्षित, अर्ध बेरोजगार, कमजोर यानि अस्वस्थ और ढोंग पाखंड में डूबा रखना चाहता है। ऐसे परिवार से निर्मित समाज या राज्य पर नियंत्रण रखना बहुत आसान होता है, हालांकि इससे व्यापक समाज यानि राष्ट्र को बहुत बड़ा नुक़सान होता है। भारत में यह सब लम्बे समय से चल रहा है।पहले अपने ग्रामीण आत्मनिर्भरता के कारण भारतीय राज्य, या बाजार पर वैश्वीकरण का व्यापक असर नहीं होता था।
आज एक ग्लोबल विलेज के एक टोला बन जाने से "विकास" की स्थिति और स्तर की अवधारणा विश्व के सापेक्ष हो गई है, जो कल तक निरपेक्ष था।
इसी पैमाने पर भारत सहित सभी पिछड़े हुए देश वैश्विक पटल पर अपेक्षानुरूप प्रदर्शन नहीं कर पा रहा है।
भारत का वर्तमान प्रदर्शन इसके बाजारगत खपत के कारण प्रगति की गति को तेज़ होने का भ्रम देता है।
लेकिन वैश्विक परिदृश्य में हो रहे मौलिक संरचनात्मक ढांचा में सकारात्मक बदलाव के अनुसार सभी पिछड़े हुए देशों में मौलिक संरचनात्मक ढांचा में बदलाव नहीं हो रहा है।
भारत में सांस्कृतिक विरासत और गौरव के नाम पर रुढिवादिता पैर पसार रहा है।
इस रुढिवादिता को जमीन पर उतारने और मजबूती से जमाने में इसी परिवार को निर्मात्री ईकाई के रूप में ही देखा और समझा जाना चाहिए।लेकिन
जब 'नागरिक समाज' ऐसे अवैज्ञानिक, अतार्किक और अलोकतांत्रिक तरीके से आगे बढ़ता है और उसे जब राज्य का समर्थन भी मिलता है, तब 'फासीवाद' का उदय हो जाता है और वह और मजबूत होने लगता है।
तब बाजार में भी फासीवाद के पक्ष में स्थानीय शक्तियां, यानि पूंजिपतियों का उभार होने लगता है और वह मजबूत होने लगता है। तब इन स्थानीय उदित शक्तियों का द्वंद वैश्विक शक्तियों से भी होने की संभावना रहती है, या वह भी इस वैश्विक गठजोड़ में शामिल हो सकता है।
जो शक्तियां आज फासीवाद को मजबूत करती दिखती हैं, वही शक्ति कल बाजार की अनिवार्य आवश्यकताओं के कारण ही फासीवाद को खंडित भी करने लगती है।
यानि यही नवोदित शक्तियां बाद में तथाकथित सांस्कृतिक विरासत और गौरव को जमींदोज भी कर देती हैं। यह सब विश्व की बदलती गत्यातमकता (Dynamism) के संदर्भ में देखा और समझा जाना चाहिए।
अब आप संक्षेप में, 'नागरिक समाज', 'सामाजिक पूंजी' और उसके 'नकारात्मक प्रभाव' से पैदा होने वाली 'फासीवाद' को समझ गए होंगे।
इसकी संभावना अविकसित देशों, यानि तथाकथित विकासशील देशों, यानि पिछड़े हुए सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के देशों में ज्यादा होती है।
इन सभी स्थितियों , क्रियाविधियों , अवस्थाओं को आप कितनी गहराई तक देख पा रहे हैं, आप स्वयं ही महसूस कर सकते हैं।
लेखक राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले चुके हैं।