हेमन्त कुमार झा
लालू प्रसाद जी से एक बड़ी राजनीतिक गलती यह हुई कि अपने शासन काल के शुरुआती दौर में ही उन्होंने शिक्षक समुदाय को अपना आलोचक ही नहीं, बाकायदा अपना विरोधी बना लिया।
लालू जी पहली बार मुख्यमंत्री किसी "थंपिंग मेजॉरिटी" से नहीं बने थे बल्कि इसमें कांग्रेस विरोध के नाम पर राजनीतिक जोड़ तोड़ की बड़ी भूमिका थी। भाजपा ने भी उनका समर्थन किया था और फ्लोर पर अपना बहुमत साबित करने के लिए उन्होंने भाजपा नेताओं से लंबी लंबी मंत्रणाएं की थी।
किंतु, उसी दौरान उफान पर आए मंडल आंदोलन ने बिहार में पिछड़ा उभार की जो लहर पैदा की उसने लालू प्रसाद यादव को एक अलग तरह का नायकत्व दिया और जल्दी ही वे "पिछड़ों के मसीहा" कहे जाने लगे। आडवाणी की रथयात्रा रोक उन्हें गिरफ्तार करने की घटना ने लालू की "जय जय" को एक अलग तरह का आयाम दिया और मीडिया गॉसिप में अक्सर ऐसी चर्चाएं होने लगी कि वे अब विश्वनाथ प्रताप सिंह को "सर" से संबोधित नहीं करते बल्कि "विश्वनाथ जी" कहा करते हैं, जो आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद प्रधानमंत्री नहीं बल्कि "पूर्व प्रधानमंत्री" हो गए थे। बिहार और देश का बदलता इतिहास लालू को गढ़ रहा था और लालू नया इतिहास रच रहे थे।
अब, लालू प्रसाद थे और उनकी सलाहकार मंडली थी। रंजन यादव नाम के एक छोटे मोटे नेता जी, जो पटना विश्वविद्यालय में कोई कर्मचारी टाइप नौकरी में रहे थे, अचानक से बड़े आदमी के रूप में उभरने लगे। लालू के खासमखास सलाहकार के रूप में बिहार के शिक्षा जगत में जल्दी ही उनकी तूती बोलने लगी। कुलपति को हटाना, कुलपति को बिठाना, मन हो तो अचानक से किसी कुलपति को सार्वजनिक रूप से बेइज्जत कर देना, मूड खराब होने पर बड़े बड़े प्रोफेसरों और कुलपतियों, कुलसचिवों आदि को चुनी हुई गालियों से नवाजना रंजन यादव जी का प्रिय शगल था।
अब लालू जी बिहार के सर्वेसर्वा थे, रंजन यादव बिहार की उच्च शिक्षा के सर्वेसर्वा थे। रंजन जी की प्रतिष्ठा अधिक नहीं थी लेकिन खौफ बहुत था विश्वविद्यालयों में। जहां तक याद पड़ता है, अगर मैं गलत नहीं हूं, तो पटना की किसी "चूड़ी गली" में उनका निवास था जो युनिवर्सिटीज के बड़े पद धारियों और पद की आकांक्षा रखने वालों के लिए तीर्थ स्थल के समान था।
अखबार वाले रंजन यादव का जलवा अपने गॉसिप्स में अक्सर परोसा करते थे। एक अखबार ने तो उस दौर में बाकायदा एक साप्ताहिक कॉलम ही बना दिया था..."चूड़ी गली से"।
उस दौर में खूब चर्चित रही एक पत्रिका ने रंजन यादव के कथित कार्यकलापों पर बाकायदा एक विशेषांक ही निकाल दिया था जिसका शीर्षक था, "रंजन की रंगबाजी"।
अब, श्रीमान रंजन यादव जी को इन सबसे जो भी नफा नुकसान हो रहा हो, लालू जी को सिवाय नुकसान के और कुछ नहीं हो रहा था। लेकिन, वह दौर था...लालू जी थे...उनका अहंकार था...उनकी सलाहकार मंडली थी।
उन दिनों विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों की संख्या में सवर्ण लोगों की बहुतायत थी जबकि अखबार की दुनिया में सवर्णों की एकछत्रता थी।
तो, रंजन की रंगबाजी या लालू के अहंकार को अलग तरह से चाशनी लगा कर पेश करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी जाती थी।
उन दिनों प्रोफेसरों की रिटायरमेंट उम्र यूजीसी के रेगुलेशंस के अनुसार 62 वर्ष थी। अचानक से एक दिन आकाशवाणी के पटना केंद्र से प्रसारित होने वाले प्रादेशिक समाचार में खबर आई कि बिहार सरकार ने प्रोफेसरों की रियायरमेंट उम्र सीमा को तत्काल प्रभाव से घटा कर 60 वर्ष कर दिया है और यह आज से लागू हो गया है।
रातोरात सैकड़ों प्रोफेसर रिटायर कर दिए गए। जो शाम में अपने विभाग से या कॉलेज से अगले दिन का कोई कार्यक्रम मन में बना कर घर लौटे थे वे उसी शाम घर पर ही रिटायर हो गए। लालू समर्थकों के बीच यह परसेप्शन स्थापित किया जाने लगा कि "बिना कुछ करे धरे हजारों की पगार मुफ्त में उठाने वाले बाभन प्रोफेसरों को लालू जी ने घर बिठा दिया।"
फिर, एक दिन लालू जी ने विधान सभा में घोषणा कर दी कि बिंदेश्वरी दुबे के मुख्यमंत्रित्व में सरकारी घोषित किए गए 40 कॉलेजों के लगभग चार हजार प्रोफेसरों की नौकरी खत्म। इसमें भी अप्रत्यक्ष संदेशा दिया गया कि हटाए गए अधिकतर लोग सवर्ण ही हैं जिन्हें आसमान से धरती पर ले आया गया।
इसमें संदेह नहीं कि उन 40 कॉलेजों में प्रोफेसरों की नियुक्तियों में संबंधित गवर्निंग बॉडीज ने और सरकारी घोषित होने के बाद यूनिवर्सिटी और सचिवालय के बाबुओं ने नियमों की घोर ऐसी की तैसी की थी और यह एक महा घोटाला था, लेकिन लालू के सलाहकारों की अदूरदर्शिता ने हटाए गए उन लोगों को जैसे नया जीवन दे दिया क्योंकि कोर्ट ने कहा कि मुख्यमंत्री इस तरह प्रोफेसरों को हटाने की एकबारगी घोषणा नहीं कर सकता और प्रक्रिया से ही सब कुछ तय होगा। फिर, जब कोर्ट के आदेश से जांच आदि की प्रक्रिया शुरू हुई तो लालू के सलाहकारों की बुद्धि जवाब दे गई और कुछेक को छोड़ कर लगभग सारे के सारे हटाए गए प्रोफेसर फिर से बहाल हो गए। न सिर्फ बहाल हुए बल्कि इस अवधि का पूरा का पूरा वेतन भी वसूला, जम कर प्रमोशन भी पाया और अगले कई दशकों पर बिहार की उच्च शिक्षा की छाती पर मूंग दलते रहे। उनमें एक से एक फ्रॉड भी थे जो बाद में एक से एक पदों पर सुशोभित हुए और बिहार की उच्च शिक्षा की गरिमा को जम कर धोया, खूब भ्रष्टाचार कर मन भर लूटा और बिहार की विश्वविद्यालयी शिक्षा को बर्बाद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
लालू जी अगर रंजन यादव और उन जैसे अन्य सलाहकारों की बात पर न चल कर कानूनविदों से मशविरा कर कुछ कदम उठाते, सही को सही और गलत को गलत ठहराने में नियमों का सहारा लेते तो बिहार को इतना बड़ा अभिशाप न झेलना पड़ता और बिंदेश्वरी दुबे के शासन के दौरान नियुक्त हुए हजारों बेहद गलत लोगों को शिक्षा तंत्र की छाती पर धूनी रमाने का मौका नहीं मिलता।
लालू राज के लगभग पूरे के पूरे कालखंड में विश्वविद्यालयों का प्रोफेसर समुदाय खून और अपमान के आंसू रोता रहा। सबसे पहले तो नियमित वेतन मिलना अवरुद्ध हुआ। हर महीने मिलने वाला वेतन अब तीन, चार यहां तक कि पांच पांच महीने पर मिलने लगा। फिर अगला चाबुक...फंड की कमी और ऑडिट आदि का हवाला दे कर वेतन का मात्र 60 या 70 प्रतिशत मिलने लगा। हाहाकार मचने लगा लेकिन लालू के गैर जिम्मेदार बयानों का कोई अंत नहीं रहा।
अगला जोरदार चाबुक, सभी प्रोफेसरों के तमाम प्रमोशंस छीन लिए गए। जो रीडर थे (एसोसिएट प्रोफेसर के समकक्ष) और जो प्रोफेसर थे...लगभग सबके सब पटक कर लेक्चरर बना दिए गए। वेतन भी उसी अनुसार घटा दिया गया। पूरे देश के मीडिया ने इसका संज्ञान लिया लेकिन लालू जी अपने कूढ़ मगज सलाहकारों की बोली बोलते रहे, "गलत तरीके से सबने प्रमोशन लिया था, हमने छीन लिया।" कुछेक गलत के आधार पर सबको बेइज्जत कर लालू जी ने हर लेवल पर शिक्षक समुदाय की हाय आमंत्रित की और हासिल कुछ नहीं किया, खोया बहुत कुछ।
इधर, लालू के तब के शिक्षा मंत्री जयप्रकाश यादव का अलग ही जलवा था। उन्होंने आदेश निकाला कि स्कूलों के तमाम शिक्षकों को जिला बदर कर दिया जाए। अब, बीस बीस, तीस तीस वर्षों से स्कूलों में पढ़ा रहे, पीढ़ियों के बीच सम्मानित स्कूली शिक्षकों के बीच अफरातफरी मच गई। इस बिना तर्क के फैसले के बाद मनचाहा जिला पाने की होड़ शुरू हुई और मंत्री जी के बगलगीरों से लेकर जिला और राजधानी लेवल के शिक्षा अधिकारियों ने जम कर मौज काटी, खूब रुपए कमाए और मास्टरों की जेब जम कर काटी। उस वक्त जो बिहार के तमाम स्कूल पटरी से उतरे तो आज तक फिर पटरी पर चढ़ नहीं पाए।
लालू जी ने जिनकी नौकरी छीनी वे कोर्ट से लड़ कर फिर नौकरी में आ गए, जो वेतन कटौती की उसकी भरपाई नीतीश सरकार ने सत्ता में आने के बाद कर दी, जो प्रमोशन छीना उसे कोर्ट ने, फिर नीतीश सरकार ने बहाल कर दिया।
लालू जी को क्या हासिल हुआ? उन्हें शिक्षकों की बददुआएं हासिल हुई और परसेप्शन के लेवल पर जो "लालू राज" पर ग्रहण लगा वह आज तक नहीं धूल सका है। आज रंजन यादव सीन में कहीं नहीं हैं लेकिन उनके कुकृत्यों की प्रेतछाया तेजस्वी यादव का भी पीछा नहीं छोड़ रही।
इतिहास में ऐसा कोई शासक नहीं हुआ जो शिक्षकों को अपमानित कर, उनसे बैर ले कर सम्मानित हुआ हो। लालू जी पर भी यह दाग लगा और आज भी यह उनके साथ है। अब इन सबमें उनका कितना एकांत दोष था, कितना उनके नालायक सलाहकारों का दोष था यह बहस का विषय है लेकिन जो कलंक लगना था वह पूर्ण रूपेण लालू जी पर लगा। आज तेजस्वी जी लालू की विरासत पर राजनीति के मैदान में हैं तो इतिहास का यह कलंक उनका भी पीछा नहीं छोड़ रहा। अब, उन पर निर्भर है कि कलंक की इस प्रेतछाया से वे कैसे जूझ पाते हैं। आसान तो बिल्कुल नहीं होगा यह।
नीतीश जी के शुरुआती शासन काल में तो सब कुछ ठीक ठाक रहा, लेकिन जैसे जैसे ब्यूरोक्रेसी के शिकंजे में बिहार का शिक्षा जगत आया, आज की तारीख में बदहाली का कोई अंत नहीं है। विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को ब्यूरोक्रेसी की काहिली और अहंकार के कारण महीनों महीनों तक वेतन नहीं मिलता, किसी किसी विश्वविद्यालय में तो सात महीनों से वेतन नहीं मिला है और शिक्षक सड़क पर आंदोलित हैं। यहां तक कि जांच के नाम पर सैकड़ों नवनियुक्त शिक्षकों का चौदह चौदह महीने से वेतन अवरुद्ध है। यह इंतहा है प्रशासनिक अराजकता की।
यह क्रेडिट नीतीश जी को ही दिया जाएगा कि उनके शासन काल में विश्वविद्यालयों में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया और प्रशासनिक अराजकता ने नए रिकॉर्ड स्थापित किए। कॉलेजों में नियम विरुद्ध अवैध प्रभारी प्राचार्यों की नियुक्तियां जम कर होने लगी और इन अवैध लोगों ने परिसर की गरिमा को ताक पर रख कर सिवाय निर्मम और निर्लज्ज लूट के, कुछ और नहीं किया। यह नीतीश राज के भ्रष्टाचार के प्रति "जीरो टॉलरेंस" का मजाक है कि कोई अवैध प्राचार्य लूट मचाने में तनिक भी डरा नहीं और डर भी नहीं रहा। नीतीश जी द्वारा स्थापित और उनके सपनों का विश्वविद्यालय पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय इन घटिया मामलों में अग्रणी होने का गर्व पाल सकता है जहां कुलाधिपति के आदेश की खुली अवहेलना करते दर्जनाधिक अवैध प्रभारी प्राचार्य अभी भी पद पर बिठा कर रखे गए हैं। अवैध प्रभारी प्राचार्यों को हटाने के ढाई महीने पहले से निकले कुलाधिपति के आदेश पर अब तक कार्रवाई न होना...यह नीतीश राज में उच्च शिक्षा परिसरों की प्रशासनिक अराजकता में ही संभव है।
नीतीश जी के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अफवाहें उड़ती रहती हैं। पता नहीं सच क्या है। लेकिन, कोई सक्षम मुख्यमंत्री इतनी अराजकता कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि उसके राजकाज में विश्वविद्यालय शिक्षकों को सात सात महीनों, चौदह चौदह महीनों तक वेतन न मिले? पदाधिकारियों को पब्लिक परसेप्शन से क्या लेना देना, लेकिन नीतीश जी और उनके राजनीतिक साथियों को सोचना होगा कि शिक्षकों को परेशान और अपमानित करने का ब्यूरोक्रेसी का जाहिल रवैया और परिसरों में व्याप्त निडर भ्रष्टाचार उनके लिए भी नई कलंक गाथा लिख रहा है।
शिक्षकों को बेवजह परेशान और अपमानित कर कोई भी शासक पतन के गर्त में ही गिरेगा , जिससे उबर पाना आसान नहीं। लालू जैसे इतिहास पुरुष का उदाहरण सामने है। नीतीश जी के सलाहकार अगर इससे सीख नहीं ले सके हैं तो उन्हें यह अहंकार मुबारक हो।
(लेखक पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय पटना में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)