दुर्गेश कुमार
बिहार में एक दौर था, जब यदि पांच सोशलिस्ट ब्लॉक पर जमा हो जाते तो हलचल पैदा हो जाती थी कि आज कुछ न कुछ होगा, किंतु सोशलिस्ट राजनीति की धारा में अब वैचारिक शून्यता का वातावरण हावी कैसे हो गया, इनकी राजनीति करने का तरीका और पूंजीवादियों की पार्टी का तरीका कमोबेश एक जैसा क्यों लगने लगा, यह विचारणीय है।
इन्हीं सोशलिस्टों ने बिहार की राजनीति में परिवर्तन लाने के लिए कितनी कुर्बानियां दी है, यह नई पीढ़ी को जानना चाहिए।
बिहार की राजनीति में पिछड़ों की राजनीति का उभार कैसे हुआ, आरक्षण लागू करने के लिए पिछड़ी जातियों ने कार्यकर्ताओं और नेताओं ने क्या कीमत चुकाई है, यह जानना दिलचस्प होगा। जिनके बारे में लिख दिया गया हो, इतिहास सिर्फ वही नही होता है। इतिहास में अनगिनत नाम होते है जो किसी पन्नों में दर्ज नही होते है।
प्रसंग पिछड़ों के संघर्ष को लेकर है, जिसे जानना और राजनीतिक बारीकियों को समझना चाहिए।
बिहार में 24 जून 1977 को मुख्यमंत्री बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने समस्तीपुर लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था। उनके इस्तीफे से खाली हुई 1978 के लोकसभा चुनाव में प्रचार के लिए चौधरी चरण सिंह समस्तीपुर आए हुए थे। तब जनता पार्टी के उम्मीद्वार अजीत कुमार मेहता और कांग्रेस के उम्मीदवार केके मंडल थे। अजीत मेहता कुशवाहा जाति के थे, इसी को देखते हुए केके मंडल को बाहर से बुलाकर कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया ताकि ताकि यादवों के वोट कांग्रेस को मिले।
समस्तीपुर की एक चुनावी सभा में चौधरी चरण सिंह ने कहा कि मैं भी यादव हूं, यादव तो वोट मेरे लिए ही करेंगे। इस चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार केके मंडल की हार हो गई थी। चरण सिंह के इस बयान का प्रभाव यह हुआ था कि इस चुनाव में यादवों का वोट जनता दल और कांग्रेस दोनों को मिला।
चौधरी चरण सिंह के साथ उसी चुनावी सभा में कर्पूरी ठाकुर ने यह भी ऐलान किया कि वो मुंगेरी लाल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर आरक्षण लागू करेंगे। लिहाजा उसकी प्रतिक्रिया में कांग्रेस के अलावा समाजवादियों की तरफ से भी नाक भौं सिकोड़ा गया। अगले ही दिन पटना में जेपी ने कहा कि वो आर्थिक आधार पर आरक्षण के पक्ष में हैं जाति के आधार पर नहीं।
जेपी के बयान अखबार में छपने के बाद जनता पार्टी खेमें में सांप सूंघ गया। कर्पूरी ठाकुर समेत सारी सभा सन्न रह गई। कोई चूं तक नहीं कर रहा था। जेपी के खिलाफ कौन बोलता! वह जेपी जिनकी संपूर्ण क्रांति से कई पिछड़ी जातियों के नेताओं का उदय हुआ हो, उस वटवृक्ष के सामने किसकी चलेगी! ऐसे ही माहौल में पिछड़ी जातियों के अधिकारों की उम्मीदें दम तोड़ने लगी, लेकिन किसी में बोलने का साहस नहीं हो रहा था।
ऐसे में फायर ब्रांड समाजवादी नेता राम अवधेश सिंह ने विधायक क्लब पटना में एक बैठक बुलाई। पटना स्थित यह विधायक क्लब अब टूट गया है। बैठक में झारखंड क्षेत्र के एक विधायक नईम चांद, बाबू लाल शास्त्री और रामविलास पासवान भी उपस्थित हुए। राम अवधेश सिंह ने पिछड़े वर्ग के अनेक नेताओं को निमंत्रण भेजा गया था लेकिन अधिकतर ने किनारे कर लिया था। इस बैठक में उन्होंने पिछड़ों के आरक्षण और जेपी के स्टैंड को लेकर अपनी बातें रखी। उसी बैठक में बिहार पिछड़ा वर्ग महासंघ का गठन हुआ। महासंघ के अध्यक्ष राम अवधेश सिंह और महामंत्री राम विलास पासवान चुने गए।
मंडल मसीहा राम अवधेश सिंह के बारे में भी नई पीढ़ी को जानना चाहिए। राम अवधेश बाबू 1969 में आरा विधान सभा क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी के विधायक रहे। आपात काल के बाद 1977 में बिक्रमगंज से लोकसभा पहुंचे तो लोकसभा ने पिछड़ों के अधिकारों को लेकर देश के एक फायरब्रांड नेता के रुप में उन्हें देखा। रांची स्थित जेवियर इंस्टीट्यूट से स्नातक राम अवधेश बाबू कई पुस्तकों के रचयिता थे। एक समय ऐसा आया जब लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण के दौरान ही उन्होंने काका कालेलकर की रिपोर्ट की सिफारिश को लागू करने की मांग की। संभवतः भारतीय संसद के इतिहास में यह एकमात्र मौका है जब राष्ट्रपति के अभिभाषण को भी एक मिनट के लिए रोकना पड़ा हो। उन्होंने जनता पार्टी सरकार के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से संसद में मांग किया कि चुनावी घोषणा था इसलिए काका कालेलकर समिति की सिफारिश लागू करिए। मोरारजी ने कहा कि सारे चुनावी मुद्दे लागू थोड़े किए जाते है। इस पर तपाक से राम अवधेश बाबू ने कहा कि यदि आप यूके और फ्रांस के पीएम होते तो आप पर अंडे पड़ते।
राम अवधेश सिंह वैसे मिजाज के नेता शुरु से ही थे। पिछड़े वर्ग के नेताओं की सक्रियता को बढ़ते देख जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने रामविलास पासवान को फोन कर हड़काया...नेता बनते हो, पार्टी से निकाल देंगे। फिर अगले ही दिन रामविलास पासवान का बयान अखबारों में छपा कि मुझे इन सब चीजों से कोई मतलब नहीं है, मैंने पिछड़ा महासंघ के महामंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है।
लेकिन यह कारवां रुकने का नाम नहीं ले रहा था। राम अवधेश सिंह को इस मुद्दे पर तकरीबन 20 विधायकों की सैद्धांतिक सहमति मिली थी। धीरे-धीरे बैठक, सभाएं आयोजित होने लगी। गांव-गांव तक, बिहार के प्रमुख कस्बों में, जिला मुख्यालयों तक सम्मेलन हुआ। इस मुद्दे को गरम होते देख जनता दल के भीतर ही भीतर पिछड़ा बनाम अगड़ा की आग धधक रही थी, जो कभी भी फट सकती थी। किंतु कर्पूरी ठाकुर अब एकदम से चुप लगाए थे।
ऐसे ही माहौल में पटना के गांधी मैदान में पिछड़ा वर्ग संघ के बैनर तले उन्होंने रैली बुलाई। 9 मार्च 1978 को गांधी मैदान में भारी जुटान हुआ। पिछड़ी जातियों के लाखों लोगों ने पटना को पाट दिया। किंतु इस जुटान में जो निर्ममता हुई उसे जानना जरुरी है। तब जनता पार्टी में भी वर्चस्व अगड़ी जातियों का ही था। पिछड़ी जातियों के नेताओं की संख्या बड़ी थी किंतु आरक्षण के मुद्दे पर जेपी से टकराने के लिए कोई सामने नहीं आ रहा था। राम अवधेश बाबू ने यह साहस दिखाया।
उस माहौल को कर्पूरी ठाकुर चुप चाप देख रहे थे। वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद भी कर्पूरी ठाकुर की अलग तरह की विवशता थी। उन पर रामानंद तिवारी, कपिलदेव सिंह, कैलाशपति मिश्रा जैसे नेताओं का दबाव था। तब बिहार का डीजीपी भूमिहार जाति से था। पटना स्टेशन से लेकर फ्रेजर रोड समेत हर इलाके में जो जहां दिखा उस पर पुलिस ने लाठियां भांजी। निर्मम तरीके से हुए प्रहार से त्रस्त होकर लोग पटना के मकानों और दुकानों में दुबक गए। पटना में बाहर से आए लोग लाखों की संख्या में थे लेकिन पुलिस के आतंक की वजह से सड़कों पर सन्नाटा पसरा हुआ था। दोपहर में बात राम लखन सिंह यादव तक पहुंची। राम लखन सिंह यादव का अपना दबदबा था। कांग्रेस में रहने के बावजूद भी पिछड़ों के नेता के तौर पर देखे जाते थे। बिहार की राजनीति में उन्हें शेर ए बिहार की उपाधि प्राप्त थी। उन्होंने डीजीपी को फोन कर फटकार लगाया। क्यों जी डीजीपी... लाठी चलाते हो? ...... तो अपने पुलिस को निकालो.. हम भी अपने लोग निकालते हैं।
राम लखन सिंह यादव के हड़काने के बाद पुलिस की कार्रवाई शांत हुई। शाम को 4 बजे होते होते पटना के आस पास के गांवों के लोगों की भीड़ भी गांधी मैदान में उमड़ पड़ी। गांधी मैदान पूरी तरह पट चुका था। राम अवधेश बाबू ने मंच से जय प्रकाश नारायण को सीधे चुनौती दी। उन्होंने कहा कि यदि दक्षिण में द्विजों का नेता सी राज गोपालाचारी है तो उत्तर में द्विजों का नेता जयप्रकाश नारायण है। राम अवधेश बाबू के इस बयान पर जम कर तालियां बजीं। गांधी मैदान से पिछड़ों के हुए उदघोष से बिहार की राजनीति में उबाल आ गया था। कांग्रेस तो विपक्ष में थी, टकराव जनता पार्टी के अंदर अगड़ा बनाम पिछड़ा का था।
सिर्फ राम अवधेश बाबू ही नहीं पिछड़ों के संघर्ष में शामिल तत्कालीन तमाम नेता सड़क पर उतर गए थे।
14 मार्च 1978 को पटना में आरएल चंदापुरी, शिव दयाल चौरसिया और महाराज सिंह भारती के नेतृत्व में पिछड़ी जातियों के लोगों ने विशाल प्रदर्शन किया। चंदापुरी के संगठन के द्वारा गांधी मैदान में जुटान का आह्वान किया गया था। किंतु पुलिस ने सारे रास्तों की बैरिकेडिंग की थी, प्रदर्शन पर रोक लगा दिया गया था। किंतु चंदापुरी को चिल्ड्रेन पार्क में सभा करने की इजाजत दी गई, जो छोटा पड़ गया। लिहाजा लोग सड़कों पर भर गए। पुलिस ने बल प्रयोग किया जिसमे दर्जनों लोग घायल हुए। उस प्रदर्शन में चंदापुरी की कनपटी पर बंदूक तक ताना गया। किंतु संघर्ष जारी रहा। अगले दिन कर्पूरी ठाकुर से जब चंदापुरी की मुलाकात हुई तो उन्होंने उनसे कहा कि चंदापुरी जी आपने मेरे काम को आसान बना दिया।
हालांकि आरएल चंदापुरी ने कर्पूरी की तीखी आलोचना करते हुए लिखा है कि महिलाओं एवं ऊंची जातियों के गरीब लोगों के लिए सात प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर सरकार ने संविधान की मर्यादा को भंग किया था। वास्तव में आरक्षण का फार्मूला कर्पूरी का फार्मूला नहीं था। वह जयप्रकाश नारायण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा ब्राम्हणवादियों का फार्मूला था, जो पिछड़ा वर्ग आंदोलन को तोड़ने के उद्देश्य से बनाया गया है।
उधर राम अवधेश बाबू का संगठन पिछड़ा वर्ग संघ के नेतृत्व में पूरे बिहार में जेल भरो आंदोलन की शुरुआत हुई। 10 दिनों तक प्रदेश के जिला मुख्यालयों पर प्रदर्शन हुआ। जेल भरो आंदोलन में रणनीति के तहत लोगों ने गिरफ्तारियां दी। दस दिनों में प्रदेश भर में 30 हजार गिरफ्तारी हुई थी।
तब जाकर कर्पूरी ठाकुर ने मुंगेरी लाल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर नवंबर 1978 में कर्पूरी ठाकुर ने 26% आरक्षण (20% पिछड़े वर्ग, 3% महिलाओं के लिए और 3% सवर्णों के लिए) की घोषणा की। किंतु सवाल उठता है कि 3% सवर्णों का आरक्षण तो मुंगेरी लाल कमीशन की सिफारिश नहीं था। फिर भी जननायक ने यह किस आधार पर किया।
असल में उस दौर में जय प्रकाश नारायण के आगे पिछड़ी जातियों के कोई भी नेता मुंह खोलने को तैयार नहीं थे। लालू प्रसाद यादव हो या नीतीश कुमार ये सब जेपी आंदोलन के बाद छात्र नेता के रुप में चर्चित हो चुके थे, फिर भी इनकी जुबां नहीं खुली थी, जिसका कारण जेपी थे। जननायक कर्पूरी ठाकुर जिस जाति से आते थे उसकी संख्या भी वैसी नहीं थी। यह जरूर है कि उन्हें तमाम पिछड़ी जातियों का समर्थन प्राप्त था। किंतु एक विवशता तो थी जिसकी वजह से पिछड़ी जातियों पर "दबंग स्टैंड" लेने के लिए समय का इंतजार करना पड़ता हो। यह भी संभव है कि जय प्रकाश नारायण से ज्यादा नाराजगी न लेने की वजह से या रामानंद तिवारी और कपिलदेव सिंह जैसे नेताओं के दबाव में 3% सवर्ण आरक्षण लागू किया हो।
राम अवधेश सिंह के सान्निध्य में रह चुके समाजवादी नेता त्रिवेणी सिंह कहते हैं कि "पिछड़ों की राजनीति का यही से वास्तविक उभार होता है। पिछड़ों के इस आंदोलन ने तय कर दिया कि बिहार के मुख्यमंत्री पद के लिए अगड़ी जातियों के नेता रेस से पूरी तरह बाहर हो गए। यहां से सोशलिस्ट के अंदर भी दो भाग हो गया। अगड़ा बनाम पिछड़ा, जो आज तक चला आ रहा है। बिहार के सत्ता की बागडोर पिछड़ी जातियों के पास ही रहनी चाहिए, यह उस आन्दोलन ने तय कर दिया।"
बहरहाल जो भी हो, आरक्षण लागू करने के बाद कैलाशपति मिश्र के जनसंघ ने कर्पूरी ठाकुर से समर्थन वापस ले लिया। इसके अलावा जनता पार्टी में शामिल ऊंची जाति के विधायकों ने भी आरक्षण नीति के कारण उनके खिलाफ विद्रोह कर दिया। उन दिनों रांची के एक शराब माफिया शिव प्रकाश साहू हुआ करता था, जो आगे चलकर सांसद भी बने। उनके बारे में कहा जाता है कि उन पर जगजीवन राम का हाथ था। विदित हो कि बिहार में सबसे पहले कर्पूरी ठाकुर ने 1977 में बिहार में शराबबंदी कानून लागू कर तहलका मचा दिया था। उसी से खार खाए शिव प्रसाद साहू ने पैसों का इंतजाम कर जनता दल के लोकदल खेमे के 12 दलित विधायकों को तोड़ने में मदद किया। विधानसभा में कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया जिसमें वे 30 मतों से हार गए। दलित राम सुंदर दास का नाम सामने रख कर अगड़ों ने पिछड़े कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिरा दिया। 21 अप्रैल 1979 को इस्तीफा देना पड़ा, जिसके बाद राम सुंदर दास बिहार के मुख्यमंत्री बनाये गए। रामसुंदर दास के मंत्रिमंडल में अगड़ी जातियों के मंत्री 50 फीसदी जबकि ओबीसी 20 फीसदी थे।
किंतु अपने छोटे कार्यकाल में ही कर्पूरी ठाकुर ने तमाम विवशता के बावजूद जब भी मौका मिला पिछड़ी जातियों के लिए फैसले लिया। तब के दौर में अंग्रेजी में कमजोर होने के कारण अधिकांश छात्र मैट्रिक पास नहीं कर पाते थे, लिहाजा नौकरी में शामिल होने से वंचित रह जाते थे। कर्पूरी ठाकुर ने अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर दिया। जिसका मनुवादी तत्वों ने कर्पूरी डिवीजन कह कर मजाक उड़ाया। किंतु शायद कर्पूरी डिवीजन की वजह से ही बिहार में एक मध्यम वर्ग तैयार हुआ जिसने आगे चल कर समाजवादियों की जमीन को मजबूत किया। जब उन्हें पता चला कि सिंचाई विभाग में भीतर ही भीतर भर्ती हो जाती है तो उन्होंने 6000 इंजीनियरों को गांधी मैदान में बुला कर सीधे नौकरी दिया।
कर्पूरी ठाकुर ने दलितों की आत्मरक्षा के लिए 400 बंदूकें भी खरीदी थी। लेकिन उन्हें सरकार गिराने की धमकी दी गई तो इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
आरक्षण लागू करने के लिए वे समय का इंतजार कर रहे थे। इससे साफ होता है कि वे भले ही दबंग न हो लेकिन एक बेहद तेज तर्रार नेता थे। ईमानदारी में तो उनका कोई सानी नहीं था।
समाजवादियों की राजनीति में भी जाति वर्चस्व और अधिकारों को लेकर संघर्ष की कहानी सामाजिक ताने बाने का अक्श लिए ही है। किंतु उस दौर के राजनेता अपने अपने सिद्धांतों के पक्के और शैक्षणिक रुप से भी ज्यादा समृद्ध थे। नैतिकता की कसौटी पर उनके मानदंड काफी ऊंचे होते थे। नब्बे के दशक के बाद की राजनीति में समाजवादियों के खेमें में भी एक एक कर वैचारिक लोग किनारे किए गए। त्रिवेणी सिंह कहते हैं कि "राम अवधेश बाबू जैसे नेताओं का राजनीतिक अवसान होने के साथ ही तमाम इलाकों में प्रभाव रखने वाले वैचारिक कार्यकर्ताओं को किनारे लगा दिया गया। एक नहीं अनगिनत नाम है। उनकी जगह बाहुबली, अपराधी जाति के नाम पर नायक की तरह पेश किए गए। नुकसान यह हुआ कि जिस समूह की छवि रक्षक की थी, उसे भक्षक के रुप में पेश किया जाना आसान हो गया। मौजूदा समाजवादियों की कमजोर कड़ी यही है। अब न वैचारिक प्रतिबद्धता है न संघर्ष का माद्दा है। समाजवाद के बियाबान में शून्यता है।
स्रोत
1. समाजवादी नेता त्रिवेणी सिंह से बातचीत पर आधारित।
2. भारत में ब्राह्मण राज और पिछड़ा वर्ग आंदोलन एवं अन्य
(लेखक सामाजिक चिंतक एवं राजनैतिक विश्लेषक हैं।)