
बिहार में चुनाव आयोग : अब मतदाता सूचियों में विदेशी नामों का हौवा
Wed, Jul 16, 2025
राजेंद्र शर्मा
जिसकी आशंका थी, बिहार में मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण के पीछे के असली खेल का पर्दे के पीछे से झांंकना शुरू हो गया है। यह शुरूआत हुई है इसके दावों के साथ कि मतदाता सूची पुनरीक्षण के क्रम में घर-घर जाने से मिल रही जानकारियों से पता चला है कि मतदाता सूची में बड़ी संख्या में नेपाली, बंगलादेशी और म्यांमार के लोगों के नाम हैं। बेशक, अभी तक ये कथित जानकारियां, चुनाव आयोग में मौजूद 'सूत्रों' से आ रही जानकारियों के तौर पर ही मीडिया में आयी हैं। चुनाव आयोग ने खुद औपचारिक रूप से न तो ऐसा कोई बयान दिया है और न ऐसा कोई दावा किया है। बहरहाल, ये खबरें जितने बड़े पैमाने पर और वास्तव में जिस तरह हर जगह ही मीडिया में आयी हैं, उससे साफ है कि यह दबी-छुपी जानकारी का मामला नहीं है, जिसे किन्हीं इक्का-दुक्का सूत्रों ने उजागर कर दिया हो और इस या उस मीडिया संस्थान के हाथ लग गयी हों। इसके विपरीत, यह 'सूत्रों' के नाम पर खुद चुनाव आयोग द्वारा बड़े पैमाने पर खबर प्लांट किए जाने का मामला है। यह किसी से छुपा नहीं है कि मोदी राज की अपारदर्शिता की आम कार्य संस्कृति में रच-बसकर चुनाव आयोग ने भी अपनी स्वतंत्र भूूमिका के अधिकतम पारदर्शिता के तकाजों को भुलाकर, मीडिया के जरिए जनता से और स्वयं सीधे राजनीतिक पार्टियों के साथ भी संवाद कम से कम कर दिया है। मोदी राज की तरह अब चुनाव आयोग भी संवाददाता सम्मेलन और चुनाव प्रक्रिया की मुख्य हितधारक, राजनीतिक पार्टियों के साथ बैठकें कम से कम करता है और ज्यादा से ज्यादा 'सूत्रों' के नाम पर खबरें प्लांट करने का सहारा लेता है। यही बड़ी संख्या में विदेशियों के नाम मतदाता सूचियों में होने के प्रचार के मामले में हो रहा है।
कहने की जरूरत नहीं है कि यह एक जन-धारणा बनाने का और उसका अधिकतम प्रचार करने का ही खेल है। इस खेल में इस तरह का 'सूत्रों' के नाम पर किया जाने वाला प्रचार, खासतौर पर मददगार होता है, जिसे विश्वसनीय बनाने के लिए जिस संस्था के नाम पर इस्तेमाल किया जाता है, उस संस्था को मंडन या खंडन में से कुछ भी करने की जरूरत ही नहीं होती है और इस तरह वास्तव में वह मौन स्वीकृति से इस धारणा के बनने में मदद ही कर रही होती है। यह मदद महत्वपूर्ण रूप से इस अर्थ में भी की जा रही होती है कि इस खबर, जिसे वास्तव में अफवाह ही कहना चाहिए, की जांच के लिए सवालों के जवाब देने के लिए, उसकी जिम्मेदारी लेने वाला कोई होता ही नहीं है। मिसाल के तौर पर 'मतदाता सूची में बड़ी संख्या में विदेशियों के नाम' होने की इस धारणा के सिलसिले में, जिसको सत्ताधारी संघ-भाजपा से जुड़ा पूरा का पूरा प्रचार सिस्टम जोर-शोर से फैलाने में लगा हुआ है, न तो इसका कहीं कोई जवाब मिलेगा कि ये 'बड़ी संख्या' आखिरकार है कितनी और न ही इसका कोई जवाब मिलेगा कि घर-घर जाने के क्रम में अधिकारियों को यह जानकारी मिली कैसे? कथित रूप से घर-घर गए, निचले दर्जे के अधिकारियों ने, जिनमें ज्यादातर बीएलओ की भूमिका अदा कर रहे स्कूल अध्यापक ही हैं, कैसे जाना, किस तरह की जांच के जरिए जाना कि मतदाता सूची में शामिल अनेक नाम, वास्तव में विदेशियों के हैं?
दूसरी ओर, 'सूत्रों' के नाम पर फैलायी जा रही इन अफवाहों में आयोग के नाम पर ही यह अफवाह और जोड़ दी गयी है कि इन नामों को पक्की मतदाता सूची में से हटा दिया जाएगा। कैसे? इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं है, हालांकि गोल-मोल तरीके से यह जरूर कहा जा रहा है कि 'जांच के बाद' नामों को हटा दिया जाएगा। लेकिन, जैसा कि बिहार में जारी पुनरीक्षण की प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट में दी गयी कानूनी चुनौतियों में बलपूर्वक रेखांकित किया गया है और अदालत भी जिससे सहमत नजर आयी है, नागरिकता की जांच करना चुनाव आयोग के दायरे में आता ही नहीं है। ऐसे में आयोग किसी भी रूप में नागरिकता की जांच को, मतदाताओं के नाम सूची में जोड़ने / हटाने का आधार बना ही नहीं सकता है। लेकिन, उद्देश्य उतना नाम हटाना नहीं है, जितना विदेशी घुसपैठ का हौवा खड़ा करना है।
इस खेल के दो मकसद तो आसानी से पहचाने भी जा सकते हैं। पहला तो यही कि जिस बात की शुरू से ही आशंका जतायी जा रही थी कि, मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की इस पूरी प्रक्रिया का ही मकसद मतदाता सूचियों की साफ-सफाई के नाम पर, इन सूचियों से वैध मतदाताओं की उल्लेखनीय संख्या को बाहर करना है, उसका इस तरह से औचित्य सिद्घ किया जा रहा होगा। और चूंकि इस पुनरीक्षण की पद्घति को इस तरह से ढाला गया कि यह ग्रामीण व शहरी गरीबों पर, कमजोर तबकों/ जाति के लोगों पर, कम पढ़े-लिखे लोगों पर, अल्पसंख़्यकों और महिलाओं पर ही सबसे ज्यादा चोट करेगी, जबकि संपन्न, शिक्षित, सवर्ण पर सबसे कम चोट करेगी, मतदाता सूचियों की यह 'सफाई', वस्तुगत रूप से सत्तापक्ष की मदद करेगी, जिसे वंचितों का अपेक्षाकृत कम और अधिकार-संपन्नों का अपेक्षाकृत अधिक समर्थन हासिल है। चुनाव आयोग की इस सब में इसलिए भी अतिरिक्त दिलचस्पी हो सकती है कि इस प्रक्रिया के अंत में उल्लेखनीय संख्या में मतदाताओं की छंटनी को, जो इस प्रक्रिया में ही निहित है, 'विदेशियों' की छंटनी के नाम पर न सिर्फ उचित ठहराया जा रहा होगा बल्कि आयोग मतदाता सूची पुनरीक्षण की अपनी पद्घति की खामियों का जवाब देने के बजाय, इतने नामों का छांटा जाना जिसका साक्ष्य है, कथित रूप से विदेशियों से देश की जनतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा के लिए अपनी पीठ भी ठोक सकेगा। याद रहे कि मतदाता सूची में विदेशी नामों की 'खबरों' ने खासतौर पर तब जोर पकड़ा है, जब मुख्यधारा के मीडिया के सरकार की ही तरह चुनाव आयोग का भी भोंपू बनने के बावजूद, कई साहसी स्वतंत्र पत्रकारों ने किसी भी तरह तय समय सीमा में इस नामुमकिन पुनरीक्षण को मुमकिन कर दिखाने की हड़बड़ी में, चुनाव आयोग द्वारा जमीनी स्तर पर अपने ही बनाए तमाम नियम कायदों को उठाकर ताक पर ही रख देने की सच्चाई को उजागर कर दिया है। यह मतदाता सूचियों में भारी धांधली और मनमानी की स्थितियां बनाता है। इस तरह ध्यान बंटाने के हथकंडों के जरिए सवालों से बचना तो, वर्तमान शासकीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा ही बन चुका है।
दूसरा मकसद, और भी सीधा है। विदेशी घुसपैठ के खतरे का हौवा खड़ा करना, वर्तमान सत्ताधारियों के तरकश का एक प्रमुख तीर है। इस तीर की प्रमुखता का एक बड़ा आधार यह है कि 'विदेशी' को आसानी से 'मुस्लिम' का पर्याय बनाया जा सकता है और इस तरह 'विदेशी घुसपैठ के खतरे' को आसानी से मुस्लिमविरोध का हथियार बनाया जा सकता है। मोदी निजाम के 11 साल में ही और खासतौर पर 2024 के आम चुनाव के समय से ही, मुस्लिमविरोधी प्रचार में जो विशेष तेजी आयी है, उसमें आम चुनाव के नतीजों के बाद से वर्तमान सत्ताधारी ताकतें, मुस्लिम घुसपैठियों के हौवे को खासतौर पर हवा दे रही हैं। झारखंड के विधानसभाई चुनावों में तो बंगलादेशी घुसपैठ का मुद्दा उछालने की प्रधानमंत्री के स्तर तक से, हर संभव कोशिश की गयी थी, हालांकि झारखंड की जनता ने इसे खारिज कर दिया। अब बिहार के चुनाव के लिए और उससे भी आगे, अगले साल के शुरू में होने वाले असम तथा पश्चिम बंगाल के विधानसभाई चुनाव लिए खासतौर पर, बंगलादेशी घुसपैठ के भूत को नचाने की कोशिशें की जा रही हैं। वैसे इस खेल की व्याप्ति सार्वदेशिक है। इसीलिए, पिछले कुछ महीनों में राजधानी दिल्ली से लेकर मुंबई तक और ओडिशा समेत देश के दूसरे कई हिस्सों में कथित घुसपैठियों की पकड़-धकड़ के नाम पर, बंगला भाषा बोलने वाले मुसलमानों को खासतौर पर निशाना बनाया जा रहा है।
इसी दौरान, पुन: सूत्रों के ही हवाले से, इसकी खबरें भी आनी शुरू हो चुकी हैं कि चुनाव आयोग ने देश के पैमाने पर, बिहार जैसे ही विशेष गहन पुनरीक्षण के लिए कदम उठाने की शुरूआत कर दी है। स्वाभाविक रूप से विपक्षी पार्टियों ने चुनाव आयोग की इस जल्दबाजी की आलोचना की है और कहा है कि उसे इस प्रक्रिया के लिए सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन चुनौतियों के फैसले का इंतजार करना चाहिए था। 28 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में इन याचिकाओं के सुने जाने की संभावना है। याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट के सामने बिहार के विशेष गहन पुनरीक्षण की समय-सूची का मुद्दा ही विचाराधीन नहीं है, बल्कि इसके लिए अपनायी गयी प्रक्रिया और अधिकार क्षेत्र के मुद्दे भी विचाराधीन हैं, जो इसके अखिल भारतीय प्रयास के संदर्भ में प्रासंगिक हैं। यही नहीं, जैसा कि पूर्व-चुनाव आयुक्त लवासा ने अपने एक लेख में ध्यान दिलाया है -- 2003 की मतदाता सूची को आधार बनाकर, सभी मतदाताओं का दो श्रेणियों में विभाजन और इसी प्रकार, जन्म तिथियों के आधार पर मतदाताओं का श्रेणी विभाजन भी, आसानी से अदालत को हजम होने वाला नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं।
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गपशप : बेचारा विपक्ष, क्या रास्ता है?
Mon, Jul 14, 2025
हरिशंकर व्यास
बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बाद भी विपक्ष के पास रास्ता नहीं है? कैसी कमाल की बात है कि इन दिनों अदालतों के फैसले या सलाह भी ऐसी होती हैं, जिनसे दोनों पक्ष खुश हो जाएं। जैसे इन दिनों दुनिया भर में लड़ाइयां ऐसी होती हैं, जिनमें दोनों पक्ष जीत का दावा कर रहे हैं। भारत और पाकिस्तान में चार दिन लड़ाई हुई तो दोनों देशों ने जीत का जश्न मनाया और जुलूस निकाले। उधर ईरान और इजराइल की लड़ाई हुई तो दोनों देशों ने युद्धविराम के बाद जीत का दावा किया और विजय जुलूस निकाला। तीन साल से ज्यादा समय से रूस और यूक्रेन लड़ रहे हैं दोनों एक दूसरे पस्त कर देने का दावा कर रहे हैं।
और बिहार में मतदाता सूची पर हो रही लड़ाई पर गौर करें? सर्वोच्च अदालत ने फैसला देने की बजाय कुछ सवाल उठाए और चुनाव आयोग को सलाह दी। सुप्रीम कोर्ट ने सवाल सही उठाए। यह पूछा कि नागरिकता प्रमाणित करना केंद्रीय गृह मंत्रालय का काम है तो आप क्यों कर रहे हैं? आप कर रहे हैं तो आपने इतना कम समय क्यों दिया? कम समय दिया तो आधार, राशन कार्ड, मनरेगा कार्ड जैसे दस्तावेजों को स्वीकार क्यों नहीं कर रहे हैं? ये सारे सवाल सही थे लेकिन इनका जवाब मांगने और प्रक्रिया पर रोक लगाने की बजाय अदालत ने चुनाव आयोग को सलाह दी कि वह अपना अभियान जारी रखे लेकिन आधार, मनरेगा कार्ड और राशन कार्ड को भी वैध दस्तावेज के तौर पर स्वीकार करे।
भला इसके बाद विपक्ष के पास क्या कोई रास्ता बचता है? विपक्षी पार्टियां बिहार में प्रदर्शन कर चुकी हैं। उन्होंने बिहार बंद भी कर लिया, जिसे जनता का भरपूर समर्थन मिला। उसके बाद न्यायिक रास्ता भी अपना लिया। सो, अब उनके पास इसके सिवा कोई रास्ता नहीं बचता है कि वे इस प्रक्रिया में शामिल हों। विपक्षी पार्टियों ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अपनी जीत बताया। हालांकि वास्तविकता यह है कि इसमें उनकी कोई जीत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की मौखिक सलाह से पहले ही बिहार में बूथ लेवल अधिकारियों ने नागरिकों से आधार कार्ड लेना शुरू कर दिया था। वे बिना आधार के भी मतगणना प्रपत्र स्वीकार कर रहे थे। उनको पता है कि इसके बाद का काम उनके हाथ में है। जनता के हाथ में प्रपत्र पहुंचा दिया और भरा हुआ प्रपत्र उनसे ले लिया। अब उसके बाद किसका नाम अपडेट किया जाना है और किसका नाम कट जाना है यह तो चुनाव आयोग के अधिकारियों के हाथ में है। विपक्ष अब इसमें कुछ नहीं कर सकता है।
(लेखक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक नया इंडिया के संस्थापक-प्रधान संपादक हैं।)

बिहार : यूपी में बिजली मांगने पर जय श्री राम, बिहार की क्या है स्थिति?
Sat, Jul 12, 2025
दुर्गेश कुमार
जब उत्तर प्रदेश में 3 घंटे बिजली मिलने पर जनता शिकायत करती है तो मंत्री जी के चेले इसे दबाने के लिए "जय श्री राम" का उदघोष करते हैं।
पड़ोसी राज्य बिहार में नीतीश कुमार ने सुनिश्चित किया है कि बिहार में किसान से लेकर आम आदमी तक को प्रति दिन 22 घंटे औसत बिजली आपूर्ति हो रही है।
देश में चंद ही राज्य है जहां इतनी निरंतरता से बिजली आपूर्ति होती है। पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश तक बिजली व्यवस्था बदहाल है। लेकिन बिहार जगमगा कैसे रहा है.. इसकी कहानी जाननी चाहिए।
नीतीश कुमार ने जब सत्ता थामी थी तब बिहार में 700 मेगावाट बिजली आपूर्ति थी। हम किताबों में जेनरेटर इकोनॉमी पढ़ कर जो बड़े हुए, वे बताते थे कि बिजली के अभाव में डीजल पावर जेनरेटर लगा कर कैसे बल्ब जलाए जाते हैं।
हरित क्रांति के बाद जिस क्षेत्र में सरकारी ट्यूबवेल लगाए गए थे, वहां तक जाने वाले बिजली के खंभे पर तार चोरी हो गए थे। उन बिजली के खंभों में भी अधिकांश चोरी हो गए थे। कहीं कहीं एकाध घंटे के लिए बिजली थी तो ट्रांसफार्मर बदलने के लिए गांव के लोग चंदा कर नजराना देना पड़ता था। पंचायत से लेकर विधायकों तक का महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दा ट्रांसफार्मर लगाना होता था। उस बिहार में अब बिजली कोई मुद्दा ही नहीं है। जानते हैं क्यों? आज बिहार में विद्युत आपूर्ति तब के मुकाबले करीब 12 गुना बढ़ कर 8000 मेगावाट से अधिक हो गया है। बिहार में बिजली स्टोर करने की क्षमता 15000 मेगावाट से अधिक है यानी विजनरी नेता नीतीश कुमार ने अपने समय से आगे की सोच रखते हुए जरूरी संरचना तैयार कराया है।
बिहार के किसान को सस्ती बिजली मात्र 75 पैसे प्रति यूनिट मिलती है, यह किसी भी राज्य में नहीं है। हमने कभी देखा है किसानों को डीजल खरीदने में हांफते हुए; गांव में जमाखोर व्यापारी के आगे गिड़गिड़ाते हुए; अब देखते हैं किसान को आराम से ट्यूबवेल पर जा कर मोटर का स्विच दबाते हुए.. सामान्य जीवन जीते हुए।
यह बदलाव है। यह परिवर्तन है। जब कोई भी परिवर्तन होता है तो उस के लाभुकों को यह सामान्य लगने लगता है। किंतु ऐसा कुछ होता नहीं है। मुगल शासन तक भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था था, अंग्रेज आए बर्बाद हो गया। लेकिन आजादी खत्म हो गई।
देश आजाद हुआ, आज़ादी के बाद अर्थव्यवस्था में धीरे धीरे सुधार हो रहा है। किंतु इस लोकतंत्र का क्या.. यह कब तक रहेगा। इसकी गारंटी कौन ले सकता है? सवाल किसी एक दल का नहीं है, उस मानसिकता का है जिसके खिलाफ जनता को अलर्ट रहना होगा।
ठीक उसी तरह, बिहार में नीतीश कुमार की अहमियत क्या है, यह समझना होगा।
आखिर जनता का मकाम क्या है?
जनता को क्या चाहिए?
गवर्नेंस..?
यदि डेवलेपमेंट...!
तो जरा दिलवालों की दिल्ली वाली शीला दीक्षित और हैदराबाद अर्थात साइबराबाद वाले चंद्रबाबू नायडू को याद कीजिए।
फिर शीला दीक्षित क्यों हार गई? कारखानों के धुएं से मुक्ति दिला कर, मेट्रो और फ्लाईओवर बना कर दिल्ली को रहने लायक बनाने वाली नेत्री को मीडिया और सवर्ण नेक्सस ने सत्ताच्युत कर दिया। कमान सवर्ण बनिया केजरीवाल को मिला। मगर जनता को क्या मिला? दुनिया के प्रदूषित शहरों में एक दिल्ली मिली। दिल्ली दिलवालों से बदल कर प्रदूषण वालों की हो गई।
जिस अपराध के मुद्दे पर नीतीश कुमार से सत्ता छीनने की कोशिश हो रही है। उस अपराध के राज्यवार आंकड़े बताते हैं कि बिहार से अधिक अपराध उत्तर प्रदेश में हो रहे हैं? बिहार में प्रत्येक अपराध को मुद्दा बना कर जनता का ध्यान नीतीश के किए विकास के कार्यों से ध्यान हटाने की कोशिश हो रही है।
इस नैरेटिव को तैयार करने में गोदी मीडिया का भी भरपूर योगदान है, यह क्यों हो रहा है.. जानना मुश्किल नहीं है।
बिहार पुलिस अपराधियों पर लगाम लगाने में नाकामयाब है तो दुनिया की कौन सी पुलिस अपराध रोकने में सक्षम हैं? यदि अपराध को मुद्दा बना कर किसी की कुर्सी छीन लेनी चाहिए तो योगी आदित्यनाथ, मोहन यादव, देवेंद्र फडणवीस और भूपेंद्र पटेल की कुर्सी सबसे पहले छीन लीजिए। क्योंकि प्रति लाख अपराध के आंकड़े सबसे अधिक इन्हीं राज्यों में है।
यदि विपक्ष के नेताओं को अपराध का पैमाना सीजर की बीबी की तरह है तो अपने अगल बगल खड़े नेताओं और अपराधियों को अपनी पार्टी से दफा करना चाहिए।
कौन है यहां जो कहेगा कि मर्डर रोक देंगे?
यहां का खेल कुछ अलग है। एक-एक घटनाओं को चुन कर नैरेटिव बनाने की कोशिश की जा रही है कि बिहार में अपराध बढ़ गया है।
आज किसी भी शहर और किसी भी गांव में आधी रात को आप भयमुक्त हो कर आ जा सकते हैं; बिहार ऐसा है।
गुजरात, पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश के किसी भी औद्योगिक क्षेत्र से आप रात को अकेले गुजरेंगे से आपसे वहां के शरारती तत्व छिनौति कर लेते है। आप कहेंगे कि प्रमाण क्या है? आपके बगल में कोई होगा जो इन क्षेत्रों में कारखानों में काम करता होगा, उनसे पूछ लीजिए; जन्नत की हकीक़त मालूम हो जाएगी।
किसी भी व्यक्ति के कई पक्ष होते हैं। यदि उसके दो तिहाई पक्ष अच्छे हो तो उसे अच्छा ही माना जाना चाहिए। नीतीश कुमार के शासन में राज्य का आर्थिक विकास हुआ है।
इस धरती पर पिछले 60000 उतना परिवर्तन नहीं हुआ जितना लगभग 200 सालों में बिजली के अविष्कार के बाद हुआ है।
ठीक इसी तरह बिहार में नीतीश कुमार ने बिजली आपूर्ति सुव्यवस्थित कर दिया तो वो परिवर्तन हुआ है जो कभी नहीं हुआ। नतीजतन, बिहार में लाखों लोगों को रोजगार मिला है। बिहार में हर जिले में औद्योगिक गतिविधियों में तेजी आ रही है। यदि ऐसा होता रहा तो अगले एक दशक में बिहार में टेक्सटाइल उद्योग तेजी से बढ़ेगा, जिसका सीधा नुकसान तमिलनाडु और गुजरात को होगा। फूड प्रोसेसिंग सेक्टर में बिहार देश का लीडर बनने की राह में है। MSME सेक्टर में उद्योग लगाने में बिहार अग्रणी बनने की राह पर है।
यदि यह यात्रा जारी रहा तो आर्थिक स्तर पर बिहार उस स्थिति में होगा जहां कोई भी हिकारत के भाव से नहीं देखेगा। गुजरात के पैसों से पोषित मीडिया और सोशल मीडिया कैंपेन का एक ही उद्देश्य है कि बिहार की इस विकास यात्रा को रोक दो। बिहार के लीडरशिप को बर्बाद कर दो कि जब चाहे उसे हटाया जा सके। जैसे कांग्रेस ने श्रीकृष्ण सिंह के बाद बिहार के साथ किया था। इस रास्ते में नीतीश कुमार रोड़ा है।
जो लोग समझ रहे हैं कि लड़ाई सिर्फ नीतीश कुमार को हटाने की है, वो बचपने में जी रहे हैं। यह बिहार के विकास यात्रा को रोकने की लड़ाई है। हिंदी पट्टी को गोबरपट्टी बना कर रखने की ख्वाहिश वाले नेताओं की साजिश है। यदि हिंदी पट्टी विकसित हो गया तो गुजरात और महाराष्ट्र की फैक्ट्रियों में काम कौन करेगा
नीतीश कुमार की गलती यह है कि उन्होंने काउंटर टीम नहीं बनाया। उन्होंने अपने पीछे एक ऐसा इको सिस्टम नहीं तैयार किया जो उन्हें सही साबित कर सके। लेकिन इतिहास उन लोगों का आभार व्यक्त करता है जिनके प्रयासों से इतिहास बदलता है। देश के लोग शीला दीक्षित को याद करते हैं, मनमोहन सिंह को याद करते हैं। कामराज को याद करते हैं। चंद्रबाबू नायडू को याद करते हैं। नीतीश कुमार जब नहीं होंगे, तब बिहार के लोग आंसू बहाएंगे।
बकौल अल्लामा इकबाल
हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।