
नब्ज पर हाथ : गठबंधनों में उलझा बिहार विधानसभा चुनाव
Sat, Jul 26, 2025
अजीत द्विवेदी
बिहार की 17वीं विधानसभा का आखिरी सत्र चल रहा है, जिसमें पक्ष और विपक्ष दोनों चुनाव का एजेंडा तय करने की होड़ में लगे हैं। 25 जुलाई तक चले पांच दिन के इस सत्र में सत्तारूढ़ गठबंधन यानी एनडीए और विपक्षी गठबंधन यानी ‘इंडिया’ के बीच एक दूसरे को भ्रष्ट, बेईमान और निकम्मा साबित करने की होड़ लगी रही। सत्र के दूसरे दिन मंगलवार, 22 जुलाई को तो विपक्ष ने विधानसभा के गेट पर ताला जड़ दिया, जिसे तोड़ कर मुख्यमंत्री को सदन में जाना पड़ा। जाहिर है कि चार महीने में चुनाव हैं तो इस तरह की नौटंकियां चलेंगी। लेकिन सवाल है कि क्या बिहार की जनता इन नौटंकियों से प्रभावित होकर वोट देगी या बदलाव का एजेंडा चला रहे प्रशांत किशोर की बात सुनेगी या यथास्थिति बनाए रखेगी?
पिछले साढ़े तीन दशक में संभवतः पहली बार बिहार विधानसभा चुनाव से पहले परिदृश्य इतना उलझा हुआ दिख रहा है। हालांकि पारंपरिक राजनीतिक विश्लेषण के हिसाब से सत्तारूढ़ गठबंधन यानी एनडीए को बढ़त है। वैसे भी भाजपा और जनता दल यू एक साथ होते हैं तो उनके चुनाव जीतने की संभावना ज्यादा होती है क्योंकि उनके पास गैर यादव पिछड़ा, अति पिछड़ा, सवर्ण और दलित का एक बड़ा सामाजिक आधार है। पिछले 20 साल से यह समीकरण परफेक्टली काम कर रहा है। और इस बार तो चिराग पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी की पार्टी भी इस गठबंधन का हिस्सा है।
पिछली बार चिराग पासवान अलग लड़े थे और उपेंद्र कुशवाहा भी अलग गठबंधन बना कर लड़े थे। इन दोनों को नौ फीसदी के करीब वोट मिले थे। इनके एनडीए के साथ होने के बाद जीत में कोई संदेह नहीं होना चाहिए। नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव हो और पांच दलों का एनडीए एकजुट रहे तो राजद, कांग्रेस के गठबंधन के लिए लड़ाई मुश्किल हो जाती है। इस बार भी ऐसी ही स्थिति दिख रही है। लेकिन फर्क यह है कि इस बार राजद, कांग्रेस, लेफ्ट की तीन पार्टियां और वीआईपी का विपक्षी गठबंधन भी ज्यादा व्यवस्थित तरीके से लड़ रहा है।
ध्यान रहे नीतीश कुमार की सेहत ठीक नहीं है और यह कई तस्वीरों और वीडियो के जरिए बिहार की जनता को पता चल चुका है। ऊपर से भारतीय जनता पार्टी उनको मुख्यमंत्री का दावेदार घोषित करके चुनाव नहीं लड़ रही है तो यह मैसेज भी बना है कि चुनाव के बाद संभव है कि नीतीश मुख्यमंत्री नहीं बनें। ऐसी स्थिति में कायदे से नीतीश समर्थकों को एकजुट होकर जनता दल यू के लिए वोट करना चाहिए ताकि पार्टी ज्यादा सीट जीते और नीतीश फिर मुख्यमंत्री बनें। लेकिन इसकी बजाय नीतीश समर्थकों का वोट बिखरता दिख रहा है। इसका एक हिस्सा राजद के साथ जा सकता है क्योंकि पिछले 11 साल में उप मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के रूप में तेजस्वी यादव एक स्वाभाविक पिछड़े नेता के तौर पर स्थापित हुए हैं। पिछड़े समाज की कई जातियां लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की राजनीति का स्वाभाविक उत्तराधिकारी उनको मान सकती हैं। उनके साथ यादव और मुस्लिम का 32 फीसदी का एक बड़ा वोट आधार पूरी तरह से एकजुट है। नीतीश के स्वस्थ नहीं होने और अगले चुनाव के बाद सरकार का नेतृत्व नहीं करने की अटकलों के कारण भी सामाजिक समीकरण प्रभावित होता दिख रहा है।
इसके और भी कई कारण हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार राजद के साथ मिल कर लड़े थे और उसी समय बिहार का सामाजिक समीकऱण बुरी तरह से प्रभावित हुआ था। उस चुनाव में लालू प्रसाद के उम्मीदवारों के साथ साथ नीतीश के पिछड़े उम्मीदवारों को भी सवर्णों के वोट नहीं मिले थे। उसके बाद से मगध, शाहाबाद और भोजपुर के इलाके में एनडीए का सामाजिक समीकरण नहीं बन पा रहा है। ऊपर से सीपीआई एमएल के ‘इंडिया’ ब्लॉक में आ जाने से इन इलाकों में विपक्षी गठबंधन बहुत मजबूत हुआ है। 2020 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनाव में यह मजबूती दिखी। पिछले लोकसभा चुनाव में तो इस इलाके की ज्यादातर सीटों पर राजद, कांग्रेस और सीपीआई एमएल के उम्मीदवार जीते। विपक्षी गठबंधन के मिली नौ सीटों में से सात सीटें, पाटलीपुत्र, जहानाबाद, औरंगाबाद, काराकाट, आरा, बक्सर और सासाराम, इस इलाके में मिली हैं और दो सीटें सीमांचल में मिली हैं।
पिछले दो चुनावों के राजनीतिक घटनाक्रम की वजह से गठबंधन के घटक दलों की आधार वोट वाली जातियों का समीकरण भी बिगड़ा है। पिछले विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान अकेले चुनाव लड़े थे और उन्होंने सिर्फ नीतीश कुमार के खिलाफ उम्मीदवार उतारे थे। चिराग की वजह से नीतीश की पार्टी को सिर्फ 43 सीटें मिलीं और वे तीसरे नंबर की पार्टी बन गए। 20 साल में पहली बार ऐसा हुआ कि नीतीश की पार्टी को भाजपा से कम सीटें आईं। कहा जा रहा है कि कोईरी, कुर्मी और धानुक इस बार विधानसभा चुनाव में इसका बदला चिराग की पार्टी से लेंगे। तभी यह माना जा रहा है कि लव कुश का वोट चिराग को नहीं मिलेगा और पासवान का वोट नीतीश की पार्टी को नहीं मिलेगा। ऐसे ही चिराग और जीतन राम मांझी का विवाद चल रहा है और अनुसूचित जाति के आऱक्षण के वर्गीकरण के सवाल पर दोनों में बड़ा विवाद हुआ था। फिर मांझी के इस्तीफे से खाली हुई इमामगंज विधानसभा सीट पर उपचुनाव में उनकी बहू दीपा मांझी के लिए प्रचार करने चिराग नहीं गए। उलटे उन्होंने प्रशांत किशोर की तारीफ की, जिसका फायदा प्रशांत के उम्मीदवार जितेंद्र पासवान को मिला। सो, यह तय माना जा रहा है कि पासवान का वोट मांझी को नहीं मिलेगा और मांझी का वोट पासवान को नहीं मिलेगा।
ऐसे ही पिछले लोकसभा चुनाव में शाहाबाद के इलाके में औरंगाबाद के तत्कालीन सांसद सुशील सिंह और काराकाट से उम्मीदवार बने पवन सिंह की वजह से राजपूत बनाम कुशवाहा का विवाद हुआ। इस वजह से सुशील सिंह खुद चुनाव हारे और सुशील सिंह व पवन सिंह के कारण काराकाट में उपेंद्र कुशवाहा चुनाव हारे। राजपूत और कुशवाहा विवाद के असर में आरा, बक्सर और सासाराम में भी भाजपा हारी। अभी तक राजपूत और कुशवाहा का विवाद नहीं सुलझा और दोनों एक दूसरे को वोट नहीं करेंगे। जहानाबाद सीट की वजह से मगध में भूमिहार बनाम चंद्रवंशी का विवाद चल रहा है। जहानाबाद के जनता दल यू के उम्मीदवार चंद्रेश्वर चंद्रवंशी को भूमिहारों ने ऐलान करके हराया। उसके बाद चंद्रवंशी और व्यापक रूप से अति पिछड़ी जातियां भूमिहारों के खिलाफ हैं। ये दोनों जातियां एक दूसरे के उम्मीदवारों को वोट नहीं करेंगी। इसका नुकसान भी भाजपा और जदयू को ही ज्यादा है। जातियों के इस बिखराव में अगर विपक्षी गठबंधन सावधानी से टिकट बांटे तो उसको इस स्थिति का फायदा हो सकता है। वैसे भी बिहार में जाति की राजनीति का विकेंद्रीकरण हो गया है। मुस्लिम, यादव और कुर्मी को छोड़ कर कोई जाति नहीं है, जो किसी पार्टी के साथ बंधी हुई है। सारी जातियां पहले अपनी जाति के उम्मीदवार को देखती हैं। उसके बाद ही दलगत निष्ठा का मामला आता है।
बिहार के राजनीतिक परिदृश्य के उलझे होने का एक कारण प्रशांत किशोर भी है। उनकी जन सुराज पार्टी सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। वे जितनी मेहनत कर रहे हैं और उन्होंने जो मुद्दे उठाए हैं उनसे उनके प्रति लोगों को कौतुहल बढ़ा है। लोग उनके मुद्दों को स्वीकार कर रहे हैं और उनकी मेहनत की तारीफ कर रहे हैं। बिहार के आकांक्षी लोगों का एक बड़ा वर्ग उनके साथ जुड़ रहा है। इस तरह कम या ज्यादा उनका वोट हर जाति और हर क्षेत्र में है। ध्यान रहे बिहार के चुनाव में हर बार 20 से 22 फीसदी वोट दोनों गठबंधनों से अलग अन्य को जाता है। इस वोट का बड़ा हिस्सा इस बार प्रशांत किशोर के साथ जाएगा, जिससे उनकी पार्टी का एक मजबूत आधार बनेगा। इसके अलावा वे एनडीए के सवर्ण वोट में भी सेंध लगाते दिख रहे हैं। इसका एक कारण तो यह है कि वे सवर्ण हैं। अगर सवर्ण मतदाताओं का छोटा समूह भी उनके साथ जाएगा तो नुकसान एनडीए को होगा। दूसरा कारण नीतीश का कमजोर होना है। उनके कमजोर होने से राजद विरोधी वोट के एक समूह का रूझान प्रशांत किशोर की ओर है। सो, अगर वे एनडीए के बड़े सामाजिक आधार में कुछ भी सेंध लगाते हैं तो उससे पक्ष और विपक्ष का चुनावी समीकरण संतुलित होगा। विपक्षी गठबंधन की उम्मीदें भी इस पर टिकी हैं।
(लेखक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक नया इंडिया के संपादक समाचार हैं।)

नागरिक परिक्रमा : अब संविधान के ख़िलाफ़ संघी गिरोह का प्रलाप!
Tue, Jul 22, 2025
संजय पराते
लोकसभा चुनाव में संविधान बदलने के लिए संघ-भाजपा के 400 पार के नारे को जनता द्वारा ठुकराने के बाद भी उसकी नीयत बदली नहीं है। अब फिर से उसने भारतीय संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे शब्दों को हटाने की बहस एक बार फिर तेज़ कर दी गई है। इस बहस को उसने यह कहकर शुरू किया है कि ये शब्द एक संविधान संशोधन के जरिए आपातकाल के दौरान जोड़े गए थे, इसलिए गलत है। संघ-भाजपा बड़ी चालाकी से आम जनता की आपातकाल विरोधी भावना को संविधान विरोधी भावना में बदलने की कोशिश कर रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने बार बार यह स्पष्ट किया है कि किसी भी संविधान संशोधन की वैधता इस कसौटी पर परखी जायेगी कि वह संविधान की मूल भावना के खिलाफ तो नहीं है। यदि पूरे संविधान की भावना का मूल्यांकन किया जाएं, तो यह स्पष्ट है कि हमारा संविधान लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और समाजवाद जैसे मूलभूत आधार स्तंभ पर टिका है और इसके सूत्र पूरे संविधान में बिखरे पड़े है। ये सूत्र ही हमारे देश में शासन की दिशा को प्रशस्त करते हैं। केशवानंद भारती के विख्यात प्रकरण में भी सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के बिना हमारे देश में लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती। चूंकि 42वां संविधान संशोधन संविधान की मूल भावना को और मजबूती से अभिव्यक्त करते हैं, इसलिए प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को जोड़ा जाना संविधान विरोधी नहीं है।
लेकिन संघी गिरोह इस संविधान को आजादी के दिन से ही मानने के लिए तैयार नहीं है। पहले उसने तिरंगा झंडा, जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक है, पर आपत्ति उठाई, तीन रंगों को अशुभ बताते हुए भगवा ध्वज की तरफदारी की। फिर उसने आंबेडकर के नेतृत्व में बने संविधान की ही खिल्ली उड़ाई और मनुस्मृति लागू करने की मांग की। उन्होंने संविधान को पश्चिमी विचारधारा की खिचड़ी बताया था। बहरहाल, आजादी के बाद देश की संविधान सभा ने संघी गिरोह की इस मांग को ठुकरा दिया और देश के विकास के लिए साम्राज्यवाद विरोधी प्रतीकों, भावनाओं, विचारों, आधुनिक मूल्यों और वैज्ञानिक तर्कशीलता को अपनाया। संघी गिरोह को यह रास्ता कभी हजम नहीं हुआ।
केंद्र और कई राज्यों की सत्ता में आने के बाद संघी गिरोह द्वारा पिछले दस सालों से प्रतिगामी मूल्यों को जनता के जेहन में बैठाने की कोशिश हो रही है। उनकी हिम्मत अब इतनी बढ़ गई है कि संविधान के सर्वस्वीकृत मूल्यों के खिलाफ ही जहर उगला जा रहा है और इस घिनौने काम में संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी शामिल जो गए हैं, जिनकी हिंदुत्व की राजनीति के प्रति लगाव किसी से छुपा नहीं है। हालत यह हो गई है कि संघ के निजी विचारों को सरकार का विचार बनाने की कोशिश हो रही है। यह हास्यास्पद है कि जो सरकार संविधान और उसके मूल्यों के पालन से बंधी हुई है, वहीं सरकार इसका बार बार उल्लंघन कर रही है। वह संविधान में निहित आधुनिक मूल्यों को, बकौल उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, "सनातन की आत्मा के साथ किया गया एक अपवित्र अपमान" बता रही है।
यह हास्यास्पद है कि जो लोग संविधान और उसके मूल्यों के खिलाफ तनकर खड़े हैं, जो इस देश के कानूनों की खुले आम धज्जियां उड़ा रहे हैं, देश में अघोषित आपातकाल लागू किए हुए हैं, वे ही अपने आप को राष्ट्रभक्त और राष्ट्रवादी बता रहे हैं और अन्य लोगों को चरित्र प्रमाण पत्र बांट रहे है। संघ-भाजपा की इस चालबाजी का पूरे देश की जनता को मिलकर मुकाबला करना होगा। इस बात को हमें ध्यान रखना होगा कि इन कथित राष्ट्रभक्तों के तीर्थ स्थल आरएसएस के नागपुर मुख्यालय पर आज़ादी के बाद 52 वर्षों तक तिरंगा नहीं फहराया गया था। समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता -- ये दो शब्द ही इन संघियों के हिन्दू राष्ट्र के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है और इसलिए इन शब्दों से उनकी नफरत जगजाहिर हैं।
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चुनाव चोर, गद्दी छोड़!
चुनाव आयोग को हथियार बनाकर बिहार में चुनाव लूटने का खेल शुरू हो चुका है। गोदी मीडिया के प्रभाव से बाहर की मीडिया जो तथ्यपरक सबूतों के साथ जो रिपोर्टिंग कर रही है, उससे इसी बात को बल मिलता है कि बिहार में चुनाव नहीं, चुनाव का फर्जीकरण हो रहा है। मतदाताओं को पंजीकृत करने के लिए कितना गहन पुनरीक्षण जारी है, इसका पता इस तथ्य से ही चल जाता है कि बिहार के ठेलों-खोमचों में इन फॉर्मों में समोसे-जलेबी लपेटकर बेची जा रहे हैं और भाजपा के कार्यकर्ता बीएलओ के साथ बैठकर मतदाताओं के नकली दस्तखत करके उन्हें वोटर लिस्ट में जोड़ रहे हैं। असली वोटरों को पावती तक नहीं दी जा रही है, ताकि वे अपने को मतदाता सूची में बाहर होने पर उसे कहीं चुनौती ही न दे सकें। इन सभी रिपोर्टों से यही गूंज सुनाई दे रही है कि असली वोटर बाहर, फर्जी वोटर अंदर। महाराष्ट्र की तरह यही फर्जी वोटर अब बिहार में एनडीए की जीत का आधार बनेंगे और असली वोटरों का मतदाता सूचियों से बाहर होना महागठबंधन की भारी हार को सुनिश्चित करेगा।
पिछले चुनाव के आंकड़े भी इसी की पुष्टि करते हैं। बिहार में लगभग 8 करोड़ मतदाता है। बिना चुनाव आयोग के किसी बयान के, लेकिन उसकी मैं सहमति के साथ ये खबरें आ रही हैं कि 40 लाख से ज्यादा मतदाताओं के नाम काट दिए गए हैं। इसका अर्थ है कि लगभग 5% मतदाता वोटिंग से बाहर हो गए हैं। इनका एकमात्र कसूर यही है कि वे गरीब हैं, कमाने खाने के लिए बाहर जाना उनकी मजबूरी है और हाशिए के ऐसे कमजोर लोग हैं, जिनकी कोई आवाज नहीं है। इन लाखों वास्तविक भारतीय मतदाताओं को वोटर लिस्ट से निकाल बाहर करने की बात कुछ सैकड़ा बांग्लादेशी नागरिक मिलने के शोर में दबाया जा रहा है, जबकि अभी तक यह तथ्य पूरी तरह स्थापित भी नहीं हुआ है।
40 लाख मतदाताओं के नाम कटने का अर्थ है, राज्य के 243 विधानसभा क्षेत्रों में से हर विधानसभा क्षेत्र से औसतन 16000 से ज्यादा वास्तविक वोटरों के नाम कटना। इसका अर्थ है, बिहार के हर बूथ से 50 से ज्यादा वोटों का कटना, क्योंकि बिहार में हर विधानसभा में औसतन 320 बूथ है।
अब विगत दो विधानसभा चुनावों के क्लोज मार्जिन से हार-जीत वाली सीटों का आंकड़ा देखें तो 2015 के विधानसभा चुनाव में 3000 से कम मतों से हार-जीत वाली कुल 15 सीटें थी एवं 2020 के चुनाव में 3000 से कम वोटों से हार-जीत वाली कुल 35 सीटें थी। इसी प्रकार, अगर 5000 से कम अंतर से हार-जीत वाली सीटों को गिने, तो 2015 में 32 सीटें और 2020 में ऐसी कुल 52 सीटें थी। इस प्रकार, इस बार के विधानसभा चुनाव में 47 से 87 सीटें (और ठोस आंकलन करें, तो 67 सीटें) बहुत कम मार्जिन से हार-जीत की संभावना वाली सीटें बनती हैं। 40 लाख मतदाताओं को मतदाता सूची से बाहर करने का अर्थ है, कम मार्जिन वाली 67 सीटों पर एनडीए की जीत सुनिश्चित करना। इसके साथ ही, जिन फर्जी मतदाताओं को भाजपा नेताओं के दिशा-निर्देशन में वोटर लिस्ट में भरा जा रहा है, वह महागठबंधन को भारी हार की ओर धकेलेगी।
यह याद रखना चाहिए कि वर्ष 2020 के चुनाव में महागठबंधन और एनडीए के बीच वोटों का अंतर एक लाख भी नहीं था। ऐसी हालत में 40 लाख मतदाताओं से मताधिकार छीनने का अर्थ स्पष्ट रूप से चुनाव नतीजों की चुनाव से पूर्व ही चोरी करना है। इसे ही चुनाव का फर्जीकरण कहते हैं। इसीलिए महागठबंधन ने बहुत सही नारा दिया है : चुनाव चोर, गद्दी छोड़। आज केंद्र में एक ऐसी फासीवादी-तानाशाह सरकार बैठी है, जो चुनाव जीतने के लिए वोट देने वाली जनता को ही बदल देना चाहती है। ऐसा तो इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में भी नहीं हुआ था। भाजपा विरोधी सभी राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं को और लोकतंत्र समर्थक मतदाताओं को इस आसन्न खतरे के प्रति सचेत हो जाना चाहिए।

नीतीश कुमार : बिहार में 17 दिन में 10 बड़ी घोषणाएं
Fri, Jul 18, 2025
नया इंडियाः
बिहार के मुख्यमंत्री ने गुरुवार को बड़ा ऐलान किया। ये फ्री बिजली को लेकर था। सीएम की ये घोषणा 1 करोड़ 67 लाख लोगों के लिए किसी तोहफे से कम नहीं है। मुख्यमंत्री
नीतीश कुमार
ने बीते 17 दिनों में जन कल्याण से जुड़े 10 अहम फैसले लिए हैं। इनमें युवा, बुजुर्ग, कलाकार, महिलाओं समेत समाज के सभी वर्गों का खास ख्याल रखा गया है।
नीतीश कुमार ने गुरुवार को एक दिन में ही दो घोषणाएं कीं। एक फैसले में उन्होंने बिहार की जनता को 125 यूनिट तक फ्री बिजली का तोहफा दिया। मुख्यमंत्री ने ऐलान किया कि 1 अगस्त, 2025 से यानी जुलाई माह के बिल से ही राज्य के सभी घरेलू उपभोक्ताओं को 125 यूनिट तक बिजली का कोई पैसा नहीं देना पड़ेगा। सीएम नीतीश कुमार के मुताबिक, इस फैसले से राज्य के कुल 1 करोड़ 67 लाख परिवारों को लाभ होगा।
इसी के साथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ‘कुटीर ज्योति योजना’ पर बड़ी घोषणा की। उन्होंने कहा कि अगले तीन वर्षों में घरेलू उपभोक्ताओं से सहमति लेकर उनके घर की छतों पर अथवा नजदीकी सार्वजनिक स्थल पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगाकर लाभ दिया जाएगा। कुटीर ज्योति योजना के तहत जो गरीब परिवार होंगे उनके लिए सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने का पूरा खर्च राज्य सरकार करेगी।
इससे पहले, 16 जुलाई को बिहार में शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर उठाया। मुख्यमंत्री नीतीश ने सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की रिक्तियों की गणना और नियुक्ति के लिए जल्द टीआरई-4 की परीक्षा लेने को कहा। इन नियुक्तियों में भी 35 प्रतिशत महिलाओं के लिए आरक्षण का लाभ बिहार की निवासी महिलाओं को दिया जाएगा।
13 जुलाई को बिहार सरकार ने प्रदेश के युवाओं को सरकारी नौकरी और रोजगार की ‘गारंटी’ दी। उन्होंने 2025 से 2030 के बीच एक करोड़ युवाओं को सरकारी नौकरी और रोजगार देने का लक्ष्य निर्धारित किया, जिसके लिए हाई लेवल कमेटी के गठन की घोषणा भी की गई। उन्होंने भविष्य में बिहार में कर्पूरी ठाकुर के नाम पर एक कौशल विश्वविद्यालय की स्थापना करने का भी ऐलान किया।
इससे तीन दिन पहले यानी 10 जुलाई को नीतीश कुमार ने सामाजिक सुरक्षा पेंशन को लेकर बड़ा ऐलान किया। तयशुदा राशि में बड़ा इजाफा किया। उन्होंने घोषणा की कि राज्य में वृद्ध, विधवा और दिव्यांग पेंशन की राशि 400 रुपये से बढ़ाकर 1100 रुपये कर दी गई है।
महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के लिए बड़ा फैसला 9 जुलाई को लिया गया। सीएम ने कहा कि अब सभी सरकारी और संविदा नियुक्तियों में केवल बिहार की मूल निवासी महिलाओं को ही 35 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण मिलेगा।
एक दिन पहले यानी 8 जुलाई को नीतीश कुमार ने ‘बिहार युवा आयोग’ का गठन करने की जानकारी दी। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार ने बिहार युवा आयोग के गठन की मंजूरी दे दी है, जो युवाओं को रोजगार, शिक्षा और नशामुक्ति जैसे मुद्दों पर नीति सुझाव देगा। आयोग में अधिकतम उम्र 45 वर्ष तय की गई है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 3 जुलाई को कलाकारों को पेंशन के लिए कदम उठाए। बिहार के वरिष्ठ और आर्थिक रूप से कमजोर कलाकारों को 3000 रुपये मासिक पेंशन देने की योजना को कैबिनेट ने मंजूरी दी।
2 जुलाई को राज्य में नई ‘मुख्यमंत्री प्रतिज्ञा’ योजना का ऐलान किया गया। हाल ही में बिहार कैबिनेट ने इसको हरी झंडी दी थी। योजना के तहत युवाओं को कौशल विकास के लिए 4000 से 6000 रुपये तक की प्रोत्साहन राशि मिलेगी। एक लाख युवाओं को इंटर्नशिप का लाभ दिया जाएगा।